भारतीय जनसंख्या के 11 लक्षण व विशेषताएँ

भारतीय समाज को समझने के लिए इसके भारतीय जनसंख्या के स्वरूप को समझना आवश्यक है। आज किसी समाज की जनांकिकीय विशेषताओं को जनगणना (Census) के द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, भारत में सन् 1871 से जनगणना के द्वारा विभिन्न जनसंख्यात्मक विशेषताओं को ज्ञात करने का प्रयत्न आरम्भ हुआ। तब से लेकर आज तक प्रत्येक दस वर्ष बाद जनगणना के द्वारा भारतीय जनसंख्या वृद्धि, जन्म-दर तथा मृत्यु दर जनसंख्या के घनत्व, लिंग अनुपात, व्यक्तियों की जीवन अवधि, आयु संरचना, साक्षरता का प्रतिशत, कार्यशील जनसंख्या तथा धर्म और भाषा के आधार पर जनसंख्या की विभिन्न विशेषताओं को ज्ञात किया जाता है।

भारतीय जनसंख्या के लक्षण

सन् 1931 की जनगणना में पहली बार भारतीय जनसंख्या की जातिगत भिन्नताओं को भी ज्ञात किया गया। वर्तमान भारतीय समाज में जनगणना से प्राप्त तथ्यों के आधार पर भारतीय जनसंख्या की प्रमुख विशेषताओं अथवा लक्षणों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

1. भारत में जनसंख्या वृद्धि

भारतीय जनसंख्या आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या का 16 प्रतिशत भाग है। सन् 1600 में भारत की कुल जनसंख्या 10 करोड़ थी जबकि सन् 1700 में यह 13 करोड़ और सन् 1850 तक 15 करोड़ तक ही पहुंच सकी। भारत में सन् 1871 में जब पहली बार जनगणना की गयी तब यहां की कुल भारतीय जनसंख्या 25.40 करोड़ पायी गयी। इसका अर्थ है कि 275 वर्ष की अवधि में हमारे समाज की जनसंख्या में केवल 15 करोड़ की ही वृद्धि हुई। इसके बाद बीसवीं शताब्दी में जनसंख्या में जिस तेजी से वृद्धि होना आरम्भ हुई, उसे निम्नांकित आंकड़ों की सहायता से समझा जा सकता है:

यदि हम सन् 1951 को आधार वर्ष के रूप में देखें तो उसकी तुलना में अब तक भारत की जनसंख्या में होने वाली वृद्धि को जनसंख्या विस्फोट कहा जा सकता है। वर्तमान स्थिति यह है कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2 करोड़ 35 लाख बच्चे जन्म लेते हैं जिसमें से यदि मृत्यु संख्या घटा दी जाय तो भी प्रति वर्ष भारतीय जनसंख्या में 1.70 करोड़ व्यक्तियों की वृद्धि हो जाती है। यह संख्या ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या से कुछ अधिक तथा संसार की बहुत-से देशों की कुल जनसंख्या से कहीं अधिक है।

अनेक प्रयत्नों के बाद भी भारत में विभिन्न राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर में अधिक परिवर्तन नहीं हो सका। कुछ प्रदेशों में जनसंख्या की वृद्धि-दर में सामान्य कमी आयी है, लेकिन आन्ध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, नगालैण्ड, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल तथा पुडुचेरी में अभी भी जनसंख्या वृद्धि की दर बढ़ती हुई पायी गयी। इसके बाद भी सन् 1961 के बाद सन् 2001-2011 के बीच पहली बार भारतीय जनसंख्या वृद्धि में गिरावट की प्रवृत्ति देख को मिली है।

भारतीय जनसंख्या वृद्धि को यदि विभिन्न राज्यों के सन्दर्भ में देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश का भारत में चौथा स्थान है, लेकिन इसमें भारत की कुल जनसंख्या का 16.16 प्रतिशत भाग निवास करता है। महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा आन्ध्र प्रदेश का स्थान क्रमशः दूसरा, तीसरा, चौथा तथा पांचवां है।

भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण

2. जन्म-दर तथा मुत्यु-दर

डेविस का कथन है कि जनसंख्यात्मक विशेषताओं में सबसे अधिक महत्व जन्म-दर तथा मृत्यु-दर का होता है। इसका कारण यह है कि जन्म-दर से मृत्यु-दर को घटाने से जो संख्या शेष बचती है, उसी के आधार पर समाज में जनसंख्या वृद्धि को ज्ञात किया जा सकता है। जिन समाजों में जन्म-दर और मुत्यु-दर लगभग समान होती है, वहां जनसंख्या में अधिक परिवर्तन नहीं हो पाता।

इस श्रेणी के समाजों को अधिक संगठित और प्रगतिशील भी समझा जाता है। दूसरी ओर, जन्म-दर की अपेक्षा मृत्यु दर कम होने पर जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होती है, जबकि जन्म-दर की तुलना में मृत्यु दर अधिक होने पर कुल जनसंख्या में कमी होने लगती है। भारत में जन्म-दर और मृत्यु दर से सम्बन्धित आंकड़े बहुत कम विश्वसनीय हैं। इसका कारण यह है कि कानून द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के जन्म और मुत्यु का रजिस्ट्रेशन करवाना अनिवार्य है, लेकिन व्यवहार में जन्म और मृत्यु से सम्बन्धित बहुत कम सूचनाएं ही सरकारी विभागों को दी जाती हैं।

जन्म तथा मृत्यु दर से सम्वन्धित इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि भारत में जन्म दर तथा मृत्यु दर दोनों में ही कमी हो रही है। इसके बाद भी जन्द-दर की तुलना में मृत्यु दर में होने वाली कमी तुलनात्मक रूप से अधिक है। मृत्यु-दर में होने वाली कमी को स्वास्थ्य की बढ़ती हुई सुविधाओं, जीवन स्तर में सुधार तथा स्वास्थ्य के प्रति जनसाधारण की जागरूकता के आधार पर समझा जा सकता है। इसके बाद भी दूसरे देशों की तुलना में भारत में मृत्यु दर आज भी बहुत अधिक है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

सबसे अधिक मृत्यु दर की स्थिति का मूल्यांकन करें तो यह उड़ीसा, बिहार और असम में सबसे अधिक है। सबसे कम मृत्यु-दर केरल में पायी जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि मृत्यु दर का शिक्षा, आर्थिक साधनों तथा प्राकृतिक दशाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अधिक मृत्यु-दर वाले राज्य वे हैं जिनमें निर्धनता, बीमारी, स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता तथा प्राकृतिक प्रकोपों की समस्याएं होने के साथ ही चिकित्सा और पोषण की सुविधाओं का अभाव है। इन्हीं दशाओं के आधार पर ऊंची मृत्यु-दर के कारणों को समझा जा सकता है।

यह सच है कि जन्म-दर से सम्बन्धित कोई विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सन् 1961 से 2011 तक प्रत्येक 10 वर्ष बाद देश की कुल भारतीय जनसंख्या में लगभग बीस प्रतिशत वृद्धि हो जाना यहां जन्म-दर और मृत्युदर के भारी असन्तुलन को स्पष्ट करता है। परिवार कल्याण कार्यक्रम पर बहुत बड़ी धनराशि व्यय करने के बाद भी जन्म दर को कम करने में कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी है। जहां तक भारत में ऊंची जन्म-दर के कारणों का प्रश्न है, इसे अनेक दशाओं के आधार पर समझा जा सकता है।

सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि जो दशाएं भारतीय जनसंख्या वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं, वही उच्च जन्म दर का भी कारण हैं। एक ओर चिकित्सा सुविधाओं तथा जीवन-स्तर में सुधार होने से मृत्यु-दर में कमी हो गयी, लेकिन दूसरी और बाल-विवाहों के प्रचलन संयुक्त परिवार प्रणाली, अशिक्षा, भाग्यवादिता, पुत्र जन्म के महत्व और बहुपत्नी विवाह की प्रथा के कारण जन्म दर में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं हुई।

अशिक्षा के कारण अधिकांश व्यक्ति अधिक सन्तानों की हानि को नहीं समझ पाते। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अधिक बच्चों के जन्म को एक सहयोगी दशा के रूप में देखा जाता है। औद्योगिक नगरों की मलिन बस्तियां ऊंची जन्म-दर के मुख्य केन्द्र हैं। कट्टरपंथी मुसलमान गर्भ निरोधक साधनों का उपयोग करना इस्लाम के विरुद्ध मानते हैं। सरकार द्वारा भी जन्म दर को कम करने के लिए कोई ऐसी नीति तैयार नहीं की गयी जिसे सभी समुदायों पर प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जा सके।

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1. परम्परागत भारतीय सामाजिक व्यवस्था की आधारभूत विशेषताएं
1. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आधार
2. भारतीय समाज का क्षेत्रपरक दृष्टिकोण1. भारतीय समाज में विविधता में एकता
3. भारत का जनांकिकीय परिवेश1. भारतीय जनसंख्या के लक्षण
2. जनांकिकी
3. राष्ट्रीय जनसंख्या नीति
5. भारत में विवाह : हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय1. विवाह के उद्देश्य व नियम
2. हिन्दू विवाह
3. मुस्लिम विवाह
4. हिंदू व मुस्लिम विवाह में अंतर
5. ईसाई विवाह
6. जनजातीय विवाह
6. भारत में परिवार तथा परिवर्तन की प्रवृत्तियां1. भारतीय संयुक्त परिवार
2. एकाकी परिवार
7. भारत में नातेदारी1. नातेदारी
2. पितृसत्ता
3. मातृसत्ता
4. वंश क्रम
5. वंश समूह
8. भारत में जाति व्यवस्था: परिप्रेक्ष्य, विशेषताएं एवं परिवर्तन के आयाम1. जाति अर्थ परिभाषा लक्षण

3. जनसंख्या का घनत्व

जनसंख्या के धनत्व का तात्पर्य किसी क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों की औसत संख्या से होता है। यदि जनसंख्या को एक सामाजिक तथ्य माना जाये तो स्पष्ट रूप से यह देखा जा सकता है। जनसंख्या का घनत्व समाज के संगठन तथा व्यक्तियों के जीवन-स्तर और व्यवहारों को बहुत अधिक प्रभावित करता है। भारतीय जनसंख्या वृद्धि की तरह जनसंख्या का घनत्व भी बहुत 2001 की जनगणना के अनुसार भारतीय जनसंख्या का घनत्व 324 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था।

जबकि 2011 में यह बढ़कर 382 हो गया। इसके बाद भी केन्द्र शासित प्रदेशों तथा दूसरे राज्यों में जनसंख्या के घनत्व में बहुत अन्तर देखने को मिलता है। केन्द्र शासित प्रदेशों में जनसंख्या का सबसे अधिक घनत्व दिल्ली में है जहां एक वर्ग किलोमीटर में इस समय 11.297 लोग निवास करते हैं। अन्य राज्यों में इस समय सबसे अधिक घनत्व बिहार में है। पश्चिम बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा का स्थान क्रमशः दूसरा, तीसरा चौथा तथा पांचवां है। अरुणाचल प्रदेश में आज भी जनसंख्या का घनत्व केवल 17 है जो सबसे कम है।

4. लिंग अनुपात

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में पुरुषों की जनसंख्या 62.37 करोड़ थी, जबकि स्त्रियों जनसंख्या 58.05 करोड़ थी। इसका तात्पर्य यह है कि प्रति एक हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या 940है। स्त्री तथा पुरुषों के अनुपात का सम्बन्ध एक बड़ी सीमा तक जीवित रहने की दशाओं तथा जनसंख्या की प्रवासीय विशेषताओं से होता है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

एक सामान्य प्रवृत्ति के रूप में कहा जा सकता है कि विभिन्न वर्षों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के अनुपात में कुछ सुधार हुआ। जहां तक विभिन्न राज्यों में लिंग अनुपात का प्रश्न है केवल केरल तथा तमिलनाडु दो ऐसे राज्य हैं जिनसे 2011 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या 1099 तथा 1000 पाई गयी। दूसरी ओर में एक हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या केवल 812 है।

5. जीवन अवधि

संसार के दूसरे देशों की तुलना में भारत में जीवन-अवधि अथवा लोगों की औसत आयु काफी कम है। जीवन अवधि का सम्बन्ध अनेक सामाजिक आर्थिक दशाओं तथा स्वास्थ्य की सुविधाओं से होता है। हमारे देश में स्वतन्त्रता से कुछ समय पहले तक लोगो की औसत जीवन अवधि केवल 30 वर्ष थी। जन्म के समय ही बहुत बड़ी संख्या में बच्चों की मृत्यु हो जाने के कारण असत जीवन अवधि इतनीकम थी।

इसके बाद जैसे-जैसे स्वास्थ्य की सुविधाओं में वृद्धि हुई तथा सामाजिक-आर्थिक विकास के फलस्वरूप लोगों को पौष्टिक आहार मिलने के साथ ही अन्धविश्वासों का प्रभाव कम होता गया, औसत जीवन अवधि में शिक्षित भी बढ़ने लगी। एक सर्वेक्षण के आधार पर ऐसा अनुमान है कि सन् 2011 तक जीवन अवधि लगभग 68 वर्ष हो चुकी थी यद्यपि 2001 के बाद से इस सम्बन्ध में कोई सरकारी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

वास्तव में, जीवन अवधि का शिक्षा से भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। यही कारण है कि निरक्षर लोगों की तुलना व्यक्तियों तथा निर्धन लोगों की तुलना में मध्यम वर्ग के लोगों में जीवन अवधि अधिक पायी जाती है। एक विशेष तथ्य यह है कि विभिन्न संगठनों द्वारा किये गए सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हुआ कि सन् 2011 में पुरुषों की औसत जीवन अवधि 66.80 वर्ष थी, जबकि स्त्रियों की औसत जीवन अवधि लगभग 69 वर्ष थी। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

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6. आयु-संरचना

किसी भी समाज की जनसंख्या सम्बन्धी संरचना को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें विभिन्न आयु वर्गों की प्रकृति को समझा जाये। इससे यह जानना सम्भव हो जाता है कि कार्य करने वाले लोगों की तुलना में कार्य न कर सकने योग्य लोगों की संख्या कितनी है। समाज की अनेक दूसरी विशेषताओं को ज्ञात करने में भी आयु संरचना का विशेष महत्व है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

अनेक विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि जिन समाजों में अधिक आयु के लोगों की संख्या काफी होती है, वह समाज विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में अधिक प्रगतिशील होता है। इसका कारण यह है कि अधिक आयु का सम्बन्ध ज्ञान और अनुभवों से होता है। समाज में कम आयु के व्यक्तियों की संख्या अधिक होना यह स्पष्ट करता है कि वहां जन्म दर अधिक होने के साथ ही अनुभवी लोगों की कमी है। भारतीय जनसंख्या में इस समय लगभग 30 प्रतिशत जनसंख्या 14 वर्ष तक के बच्चों की है।

दूसरी ओर 60 वर्ष या इससे अधिक आयु के लोगों का प्रतिशत केवल 6.60 है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि भारत में अभी स्वास्थ्य सुविधाओं तथा पौष्टिक आहार की काफी कमी है। विभिन्न वर्षों में आयु संरचना में होने वाले परिवर्तन से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत में धीरे-धीरे औसत जीवन अवधि बढ़ती जा रही है। इसके बाद भी अभी जनसंख्या का लगभग आधा भाग वह है जो जीविका उपार्जित करने की स्थिति में नहीं है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

जहां तक सन् 2011 की जनगणना से प्राप्त आयु सम्बन्धी आंकड़ों का प्रश्न है, यह गैर-सरकारी आंकड़ों से मेल नहीं खाते। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में 60 वर्ष से अधिक स्त्री-पुरुषों की संख्या लगभग 10 प्रतिशत है, जबकि जनगणना आंकड़ों के अनुसार यह प्रतिशत 8. 21 है । बात यह है कि नगरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में 60 वर्ष से अधिक के व्यक्तियों का प्रतिशत अधिक है। सम्भवतः इसका कारण नगरों के प्रदूषण और मानसिक तनावों में खोजा जा सकता है।

7. जनसंख्या में साक्षरता दर

भारत के जनांकिकी परिवेश को समझते समय जनसंख्या में साक्षरता की दर को जानना भी आवश्यक है। साक्षरता किसी भी समाज में जन्म-दर, प्रवासीय विशेषताओं, व्यवसाय की प्रकृति तथा जीवन-अवधि को प्रभावित करती है। भारत में स्वतन्त्रता के बाद साक्षरता की सुविधाओं में लगातार वृद्धि होते रहने के कारण इसमें उल्लेखनीय सुधार हुआ है। साक्षरता का तात्पर्य केवल लिखने-पढ़ने के सामान्य ज्ञान से है।

जैसा कि आगे की तालिका से स्पष्ट होता है, हमारे समाज में साक्षरता की दर में काफी वृद्धि होने के बाद भी विकसित समाजों की तुलना में यह दर बहुत कम है। विभिन्न अवधियों में स्त्री तथा पुरुषों में साक्षरता के प्रतिशत से यह स्पष्ट होता है कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद पुरुषों में साक्षरता लगभग ढाई गुना बढ़ी, जबकि स्त्रियों में साक्षरता में होने वाली वृद्धि पांच गुना से भी अधिक हो गयी। इसके बाद भी पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में साक्षरता का प्रतिशत अभी भी बहुत कम है।

विभिन्न प्रदेशों तथा नगरीय और ग्रामीण जनसंख्या में भी साक्षरता की दर में बहुत अधिक अन्तर है। साक्षरता का सबसे अधिक प्रतिशत केरल में 93.91 है, जबकि सबसे कम प्रतिशत क्रमशः बिहार और छत्तीसगढ़ में है। बिहार में साक्षरता का प्रतिशत 63 है, जबकि राजस्थान में यह केवल 67 है। इसी तरह केरल, गोआ, मिजोरम तथा लक्षद्वीप में नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता की भिन्नता बहुत कम है, जबकि अधिकांश राज्य ऐसे हैं जिनमें नगरों में साक्षरता का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में काफी अधिक है।

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8. भारत में व्यावसायिक संरचना

भारत की व्यावसायिक संरचना बहुत विविधतापूर्ण है। एक कृषि प्रधान देश होने के कारण यह स्पष्ट है कि जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा खेती और उससे जुड़े हुए व्यवसायों जैसे मछली मारने, खेती के उपकरणों की मरम्मत करने, दस्तकारी तथा बुनकर जैसे कार्यों से सम्बन्धित है। दूसरे सभी व्यवसायों से आजीविका उपार्जित करने वाले लोगों की संख्या गांवों की अपेक्षा नगरों में अधिक है।

खेती के बाद जिस व्यवसाय से सबसे अधिक लोगों को आजीविका प्राप्त होती है उसका सम्बन्ध विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करने, परिवहन तथा इनसे सम्बन्धित सभी तरह के कामगारों से है। व्यवसाय का तीसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र बहुत बड़ी संख्या में वस्तुओं की विक्री करने वाले सेल्स मैन और कामगारों से है। बहुत बड़ी संख्या में लोग विभिन्न सेवाओं जैसे खुदरा व्यापार, उपकरणों की मरम्मत, बीमे के काम, संचार से जुड़ी हुई सेवाओं, वित्तीय सलाह, विनियोजन तथा इसी तरह के सेवा कार्यों के द्वारा आजीविका उपार्जित करते हैं।

दूसरी श्रेणी उन व्यवसायों की है जिनका सम्बन्ध प्रशासनिक, प्रबन्धकीय, व्यावसायिक तथा तकनीकी रूप से उच्च योग्यता वाले व्यवसायों से है। सबसे कम लोगों की श्रेणी वह है जो प्रशासकीय व प्रबन्धकीय पदों पर कार्य करके आजीविका उपार्जित करते हैं। भारत में जैसे-जैसे औद्योगीकरण तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नये तरह के व्यवसायों की संख्या बढ़ती जा रही है, प्रबन्धकीय क्षमता वाले व्यक्तियों की मांग में भी तेजी से वृद्धि हुई है।

इसके फलस्वरूप स्वतन्त्रता के समय जहां प्रशासनिक और प्रबन्धकीय व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों की संख्या बहुत कम थी, वहीं आज एक करोड़ से भी अधिक व्यक्ति प्रशासनिक क्षेत्रों के अतिरिक्त अधिशासी और प्रबन्धकीय कार्यों के द्वारा आजीविका उपार्जित कर रहे हैं। इसी तरह विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों की संख्या भी बहुत अधिक है। कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी का तेजी से विकास होने के फलस्वरूप भी इस श्रेणी से सम्बन्धित व्यवसाय आजीविका का एक प्रमुख स्रोत बन गये हैं। सामान्य रूप से कार्यालय में काम करने वाले बाबुओं और चपरासियों की संख्या बहुत अधिक मानी जाती है, लेकिन देश की कुल श्रम शक्ति में इनका योगदान केवल 1.22 प्रतिशत है।

भारत की व्यावसायिक संरचना में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलते हैं औद्योगीकरण में वृद्धि होने के बाद भी औद्योगिक श्रमिकों की संख्या में कमी हुई है क्योंकि नयी मशीनों से होने वाले उत्पादन में अधिक श्रमिकों की आवश्यकता नहीं होती। विभिन्न प्रकार की सेवाओं और प्रतिष्ठानों में कम्प्यूटर का प्रचलन बढ़ जाने से विभिन्न क्षेत्रों में तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों की संख्या कम होती जा रही है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

प्रतिशत के दृष्टिकोण से सेल्स प्रतिनिधियों के रूप में रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि देखने को मिलती है। केवल सन् 1993 की तुलना में 2010 तक इस व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों की संख्या दो गुने से भी अधिक हो गई। एक विशेष तथ्य यह है कि व्यावसायिक संरचना में होने वाला परिवर्तन नगरीय जीवन से अधिक सम्बन्धित है। ग्रामीण जीवन की व्यावसायिक संरचना में अधिक अन्तर देखने को नहीं मिलता।

9. ग्रामीण तथा नगरीय जनसंख्या

सभी समाजों की जनसंख्या को नगरीय तथा ग्रामीण जैसे दो मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है। विकसित तथा औद्योगिक देशों में नगरीय जनसंख्या अधिक पायी जाती है, जबकि प्रगतिशील और कृषि-प्रधान देशों में ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत कहीं अधिक होता है।भारतीय जनसंख्या का 68.80 प्रतिशत भाग गांवों में निवास करता है। यह सच है कि पिछले 50 वर्षों से ग्रामीण जनसंख्या का यह प्रतिशत लगातार कम होता जा रहा है, तो भी नगरीय जनसंख्या की तुलना में यहां की ग्रामीण जनसंख्या लगभग तीन गुना है।

भारत में इस समय 5.5 लाख से भी अधिक गांव हैं जिनमें लगभग दो हजार गांव ऐसे हैं जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या दस हजार से भी अधिक है। संलग्न तालिका से स्पष्ट होता है सन् 1931 में हमारे देश की केवल 12 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में रहती थी, लेकिन आज यह प्रतिशत 31.20 तक पहुंच चुका है। इस समय देश में 300 से भी अधिक नगर एक लाख या इससे अधिक आबादी वाले हैं, जबकि मुम्बई तथा दिल्ली ऐसे नगर हैं जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या एक करोड़ से भी अधिक है।

इस समय दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों की संख्या 35 है। दूसरी ओर ग्रामीण जनसंख्या के प्रतिशत में निरन्तर कमी हो रही है। इस परिवर्तन का मुख्य कारण नगरीयकरण तथा औद्योगीकरण में वृद्धि होना एवं जनसंख्या का गांवों की ओर से नगरों की ओर प्रवास करना है। ग्रामीण जनसंख्या के जीवन-स्तर में सुधार होने से नगरों की ओर होने वाले प्रवास को अधिक प्रोत्साहन मिल रहा है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

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10. अनुसूचित जातियां तथा अनुसूचित जनजातियां

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, भारतीय जनसंख्या में आज लगभग 24 प्रतिशत लोग वे हैं। जो विभिन्न अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के अन्तर्गत आते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि देश की लगभग एक चौथाई जनसंख्या अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों से सम्बन्धित है। अनुसूचित जातियों की सबसे अधिक जनसंख्या उत्तर-प्रदेश में है, जबकि बंगाल, बिहार आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु का स्थान क्रमशः दूसरा, तीसरा, चौथा और पांचयां है।

दूसरी ओर, अनुसूचित जनजातियों की सबसे अधिक जनसंख्या मध्य प्रदेश में है जबकि महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात, तथा राजस्थान का स्थान क्रमशः दूसरा, तीसरा, चौथा और पांचवां है। जनजातीय प्रतिशत सबसे अधिक क्रमशः लक्षद्वीप, मिजोरम, नगालैण्ड, मेघालय तथा दादरा-नगर हवेली में है, लेकिन बहुत छोटे राज्य होने के कारण जनजातियों की जनसंख्या में इनका कुल प्रतिशत बहुत कम है।

विशेष बात यह है कि अनुसूचित जातियों की जनसंख्या सभी प्रमुख राज्यों में एक दूसरे के काफी समान है, लेकिन जनजातियों की कुल जनसंख्या (10.43 करोड़) में से लगभग 68 प्रतिशत जनसंख्या देश के 35 राज्यों में से केवल 7 राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में केन्द्रित है। आप भारतीय जनसंख्या के प्रमुख लक्षण पढ़ रहे हैं।

यह सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस देश की इतनी बड़ी जनसंख्या अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों से सम्बन्धित हो, यहां इनके हितों की अवहेलना करके समाज को संगठित और प्रगतिशील नहीं बनाया जा सकता। शताब्दियों से धर्म और जाति के नाम पर इन वर्गों का शोषण होते रहने के कारण इनकी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं आज भी इतनी गम्भीर हैं कि नियोजित प्रयत्नों के द्वारा ही उन्हें दूर किया जा सकता है। यही कारण है कि इन वर्गों को राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार का आरक्षण देने के साथ ही इनके लिए शिक्षा और व्यवसाय की विशेष सुविधाएं दी जा रही हैं।

1. परम्परागत भारतीय सामाजिक व्यवस्था की आधारभूत विशेषताएं
1. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आधार
2. भारतीय समाज का क्षेत्रपरक दृष्टिकोण1. भारतीय समाज में विविधता में एकता
3. भारत का जनांकिकीय परिवेश1. भारतीय जनसंख्या के लक्षण
2. जनांकिकी
3. राष्ट्रीय जनसंख्या नीति
5. भारत में विवाह : हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय1. विवाह के उद्देश्य व नियम
2. हिन्दू विवाह
3. मुस्लिम विवाह
4. हिंदू व मुस्लिम विवाह में अंतर
5. ईसाई विवाह
6. जनजातीय विवाह
6. भारत में परिवार तथा परिवर्तन की प्रवृत्तियां1. भारतीय संयुक्त परिवार
2. एकाकी परिवार
7. भारत में नातेदारी1. नातेदारी
2. पितृसत्ता
3. मातृसत्ता
4. वंश क्रम
5. वंश समूह
8. भारत में जाति व्यवस्था: परिप्रेक्ष्य, विशेषताएं एवं परिवर्तन के आयाम1. जाति अर्थ परिभाषा लक्षण

11. धर्म तथा भाषाएं

भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या एक-दूसरे से भिन्न विश्वासों से सम्बन्धित धर्मों में विभाजित है। इस धर्मों में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन तथा पारसी धर्म प्रमुख हैं। एक-एक धर्म से सम्बन्धित व्यक्ति भी अनेक सम्प्रदायों और मतों में बंटे हुए हैं। भारत की इस धार्मिक विभिन्नता के कारण ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में विकसित किया गया है। भाषा के दृष्टिकोण से भारतीय जनसंख्या अत्यधिक विविधतापूर्ण है। अपने अध्ययन के आधार पर किया कि भारत में कुल 179 भाषाओं तोडियो का चलन है।

अनेक दूसरे विद्वान यह मानते हैं कि भारत में पायी जाने पानी भाषाओं और बोलियों की संख्या 1,000 से भी अधिक है। इसके बाद भी भारतीय संविधान के द्वारा आज 22 भाषाओं को मान्यता दी गयी है। जनसंख्या में हिन्दी भाषा से सम्बन्धित लोग सबसे अधिक हैं। जनगणना रिपोर्ट के आधार पर आज हिन्दी भाषा का देश के 52 करोड़ व्यक्तियों से है तथा दुर्गे संसार की तीसरी प्रमुख भाषा के रूप में मान्यता मिली हुई है। संसार में पहला स्थान चीनी भाषा का और दूसरा स्थान अंग्रेजी का है।

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