बौद्ध दर्शन में शिक्षा को एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना गया है। शिक्षा ही मनुष्य को अलौकिक रूप एवं परमार्थिक जीवन के योग्य बनाती है। बौद्ध मत के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह है जो मनुष्य के दुखों से मुक्ति दिलाकर निर्वाण की प्राप्ति कराए। व्यक्ति के समस्त दुखों का कारण अज्ञान है और इस अज्ञान को शिक्षा द्वारा ही दूर किया जा सकता है। बिना शिक्षा के निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं है।
बौद्ध कालीन शिक्षा के उद्देश्य
महात्मा बुद्ध द्वारा सद्जीवन के लिए प्रतिपादित अष्टांग मार्ग ही शिक्षा के उद्देश्यों का प्रमुख आधार है। इनके अतिरिक्त कालांतर में कुछ शैक्षिक उद्देश्यों को इसमें सम्मिलित किया गया जिनका विवरण निम्नलिखित है-

- संस्कृति का संरक्षण – बौद्ध दर्शन में धर्म को संस्कृति का एक भाग माना गया है और संस्कृति के संरक्षण से ही धर्म का संरक्षण संभव है। शिक्षा के इस उद्देश्य के अंतर्गत शिक्षार्थियों को बुद्ध के उपदेशों एवं भारतीय संस्कृति की धरोहर को हस्तांतरित किया जाता था।
- व्यक्तित्व का विकास – इसके अंतर्गत बालक में आत्मसम्मान आत्मनिर्भरता आत्म संयम आत्मविश्वास तथा विवेक आज गुणों का विकास करने हेतु शिक्षा प्रदान की जाती हैं।
- सर्वांगीण विकास – बौद्ध शिक्षा प्रणाली में शिक्षार्थी के शारीरिक मानसिक और नैतिक विकास को देखते हुए शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। व्यावसायिक शिक्षा को भी ध्यान में रखा जाता था बौद्ध शिक्षा पद्धति में शिक्षार्थी के लिए कला कौशल हुआ उद्योग की शिक्षा का भी प्रावधान था। इस प्रकार बालक के समन्वित विकास पर ध्यान दिया जाता था।
- नैतिक जीवन – बौद्धिक शिक्षा का उद्देश्य बालक में नैतिक गुणों का विकास करना भी था।
बौद्ध कालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम
बौद्ध दर्शन के पाठ्यक्रम में लौकिक तथा धार्मिक दोनों विषयों एवं क्रियाओं को महत्वपूर्ण बताया गया है।छस लौकिक तथा धार्मिक दोनों विषयों पर आधारित होने के कारण बौद्ध दर्शन के द्वारा प्रतिपादित पाठ्यक्रम में एक समन्वयकारी दृष्टिकोण देखने को मिलता है।
- धार्मिक पाठ्यक्रम- धार्मिक पाठ्यक्रम भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों यथा इस पाठ्यक्रम का मूल उद्देश्य उन्हें निर्वाण प्राप्त करने की योग्यता प्रदान करना तथा योग्य धर्म प्रचारक तैयार करना था।
- लौकिक पाठ्यक्रम – यह पाठ्यक्रम सामान्य नागरिकों के लिए था इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य समाज के सामान्य स्त्री पुरुष को अच्छा नागरिक बनाना तथा उन्हें सामाजिक व आर्थिक जीवन उपयुक्त बनाना होता था।

बौद्ध कालीन शिक्षण विधियां
बौद्ध शिक्षण विधियां मुख्यता प्रत्यक्ष पर आधारित थी। शिक्षण क्रिया के लिए प्रवचन, भाषण, श्रवण, मनन, चिंतन, कंठस्थ करना आदि क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। प्रवचन प्रणाली के अलावा व्याख्या कीजिए प्रश्नोत्तर विधि तथा वाद विवाद का भी प्रमुख स्थान था। ब्राह्मण तथा प्रकृति निरीक्षण को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता था। पुस्तक पर आधारित अध्ययन विधि प्रयोग में लाई जाती थी।
बौद्धिक शिक्षण की प्रमुख विधियों का संक्षिप्त विवरण निम्न है-
- व्याख्यान शिक्षण विधि
- वाद विवाद विधि
- पर्यटन विधि
- सूत्र विधि
- स्वाध्याय विधि
बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत
बौद्ध दर्शन की शिक्षाओं के अनुसार, बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत निम्न है-
- चार आर्य सत्य
- अस्टांग मार्ग
- प्रतीत्य समुत्पाद
यह तीन विचार ही बौद्ध दर्शन का आधार है और इन्हें ही बौद्ध दर्शन के सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाता है।
बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य
महात्मा बुद्ध के अनुसार चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं
- दुख– जीवन दुखों से भरा है जिसे हम सुख समझते हैं उनका अंत भी दुख ही है। सुखों की प्राप्ति की इच्छा भी दुख लिए हुए है और सुखों को भोगने का परिणाम भी दुख रूप में प्रकट होता है क्योंकि सुख स्थाई नहीं है।
- दुख समुदाय– प्रत्येक दुख का कारण होता है। संसार में प्रत्येक घटना का कोई ना कोई कारण होता है और बिना कारण के कुछ भी घटित नहीं होता। दुनिया की कोई वस्तु स्थाई नहीं है, प्रत्येक वस्तु के उत्पन्न ने या नष्ट होने का जिस प्रकार से कोई न कोई कारण अवश्य होता है, उसी प्रकार से दुखों का जन्म भी किन्ही कारणों से होता है।
- दुख निरोध – दुख के कारणों को यदि हम समाप्त कर दें तो दुख को भोगने से रोका जा सकता है बौद्ध दर्शन का यह मत है कि दुखों का निवारण किया जा सकता है यह सब ज्ञान प्राप्त होने पर ही संभव है ज्ञान प्राप्त होने पर अविद्या का नाश हो जाता है और व्यक्तित्व माया मोह के बंधन से मुक्त हो जाता है और सुख दुख का अनुभव नहीं करता है।
- दुख के निवारण का मार्ग– चौथा आर्य सत्य यह है कि सही ज्ञान की प्राप्ति होने पर जीवन के दुख दर्द समाप्त हो सकते हैं इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने अष्टांग मार्ग निर्धारित किए जिनका अनुकरण करने पर अज्ञानता का नाश हो जाता है और ज्ञान के प्रकाश से मन को शांति प्राप्त होती है।

बौद्ध दर्शन के अष्टांग मार्ग
अज्ञानता का नाश करने के लिए महात्मा बुद्ध ने आठ मार्ग बताए हैं- जो निम्न प्रकार हैं-
- सम्यक दृष्टि सम्यक दृष्टि से तात्पर्य है सही ज्ञान को देखना तथा पहचानना व्यक्ति को चाहिए कि वह वस्तुओं के शुद्ध और कल्याणकारी रूप को पहचाने वस्तुओं के सही ज्ञान होने पर ही सही कर्म करने की दिशा मिलती है।
- सम्यक संकल्प– संकल्प पूर्वक सांसारिक भोग विलास की इच्छा का त्याग करना ज्ञान प्राप्ति का दूसरा मार्ग है दृढ़ संकल्प के बिना हम अपने उद्देश्यों तक नहीं पहुंच सकते यह संकल्प सम्यक अर्थात ठीक होना चाहिए।
- सम्यक वाक– यह तीसरा मार्ग है अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना जिससे कोई गलत बात ना निकले वाणी पर नियंत्रण ना रखने से ही कटता उत्पन्न होती है और लोग आपस में मतभेद रखते हैं। इसलिए वाणी पर संयम रखना चाहिए और ठीक भाषा बोली चाहिए जो किसी के हृदय को दुख ना पहुंचाए।
- सम्यक कर्म– व्यक्ति के घर में भी उचित होने चाहिए जीवन में अच्छे कर्म करने से मन को शांति मिलती है। हमारे कार्यों से किसी को कष्ट न हो, किसी की हिंसा ना हो तथा किसी के साथ अन्याय या अत्याचार ना हो। हम पवित्र मन से कर्म करें।
- सम्यक आजीव– हम अच्छे ढंग से कमाए गए साधनों से अपना जीवन व्यतीत करें और बुरे मार्ग से जीविकोपार्जन करने का विचार ना लाएं हमारा रहन-सहन सात्विक होना चाहिए।
- सम्यक भाव या सम्यक प्रयत्न– मनुष्य को शब्द प्रवृत्तियों का विकास करना चाहिए और उसके भाव ठीक हो समय प्रयत्नों द्वारा मन में अच्छे-अच्छे भाव को स्थान देना चाहिए ताकि बुरे विचार मन में प्रवेश ना करें।
- सम्यक् स्मृति– मनुष्य विचारों को शुद्ध रखें और मन वचन एवं कर्म से उन पर अमल करे। भावनाओं में आकर हमारे अच्छे विचार बुरे विचारों से प्रभावित ना हो ज्ञान की बातों को स्मरण रखना ही सम्यक् स्मृति है।
- सम्यक समाधि– सम्यक समाधि से तात्पर्य सही एकाग्रता है। हमारा ध्यान सही दिशा में समाधििस्थ हो। सम्यक समाधि से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है और दुखों से मुक्ति मिल सकती है सही समाज के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता और उसमें गलती की संभावनाएं बनी रहती हैं। अतः एकाग्र चित्त होकर ही समाधि संभव है। पहले 7 मार्गों को सफलतापूर्वक पार कर लेने के पश्चात व्यक्ति सम्यक समाधि के योग्य हो जाता है।

प्रतीत्य समुत्पाद
प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ यह है कि प्रत्येक परिणाम के पीछे उसका कारण छिपा होता है अर्थात बिना कारण के कोई भी घटना नहीं घटती। चार आर्य सत्य से यह बात पहले ही स्पष्ट हो चुकी है क्योंकि यह सिद्धांत बौद्ध दर्शन का आधार है, इस सिद्धांत के अनुसार कार्य कारण का एक चक्र चलता रहता है। जिसमें 12 कड़ियां बताई गई है जिनका आपस में कारण और परिणाम का संबंध है। इसलिए इस सिद्धांत को द्वादश निदान भी कहते हैं।
कारण और परिणाम पर आधारित यह 12 कड़ियां निम्न प्रकार अपना चक्र चलाते हैं जिसके कारण मनुष्य दुख होता रहता है सुविधा पूर्वक समझ में लाने के लिए हम चक्र की 12वीं अर्थात अंतिम कड़ी से प्रारंभ करते हैं। यह आखिरी कड़ी वृद्धावस्था तथा मृत्यु की है।
- हम जरा मरण क्यों भोगते हैं?
- क्योंकि हम पैदा होते हैं। हम पैदा क्यों होते हैं?
- क्योंकि हम में पैदा होने का भाव या प्रवृत्ति होती है। पैदा होने की प्रवृत्ति क्यों होती है?
- क्योंकि हम संसार की वस्तुओं से लगाव रखते हैं हम यह लगाव क्यों रखते हैं?
- क्योंकि हम से मैं विश्व की वस्तुओं का आनंद उठाने की तृष्णा है हमारी तक ना क्यों उत्पन्न होती है?
- हमारी इंद्रियों के अनुभव के कारण हमें इंद्रियों का अनुभव क्यों होता है?
- क्योंकि वस्तुएं हमारी इंद्रियों के संपर्क में आती है हमें यह संपर्क किन कारणों से होता है ?
- जो कि हमारी 6 ज्ञानेंद्रियां है हमारी 6 ज्ञानेंद्रियां क्यों है ?
- क्योंकि हम जीव हैं हम जीवधारी क्यों है ?
- क्योंकि भ्रूण में चेतना होती है भ्रूण में यह चेतना क्यों आती है ?
- कर्मों के प्रभाव के कारण कर्मों का प्रभाव क्यों पड़ता है ?
- हमारी अज्ञानता के कारण
इस प्रकार सब दुखों का कारण हमारी अज्ञानता है।