बहुलवाद – संस्कृति की पूर्व विवेचना से यह स्पष्ट हो चुका है कि संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विशेषताएं सामाजिक संरचना को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं। एक ओर संस्कृति व्यक्तित्व के निर्माण का आधार है दूसरी ओर आज के बदलते हुए समाजों में संस्कृति का सार्वभौमिक रूप समाप्त होता जा रहा है। कुछ पहले के अधिनायकवादी राज्यों में सभी लोगों के व्यवहार उसी संस्कृति से प्रभावित होते थे जिसे राज्य का संरक्षण मिला होता था।
आज के लोकतान्त्रिक और परिवर्तनशील समाजों में एक-दूसरे से भिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं वाले समूहों में वृद्धि होने तथा राज्य द्वारा उनकी सहभागिता और योगदान को मान्यता मिलने के कारण अधिकांश समाजों की प्रकृति मिश्रित संस्कृति वाले समाजों के रूप में विकसित हो रही है। विभिन्न समूहों के बीच बढ़ती हुई पारस्परिक निर्भरता और आदान-प्रदान के कारण भी अतीत के पूर्वाग्रहों का प्रभाव कम होता जा रहा है।
इन दशाओं के बीच विभिन्न समूहों की प्रस्थिति तथा उनके व्यवहारों को स्पष्ट करने के लिए कुछ नयी अवधारणाओं का विकास हुआ है। इनमें बहुलवाद, बहुल संस्कृतिवाद तथा सांस्कृतिक सापेक्षता कुछ प्रमुख अवधारणाएं हैं। भारतीय सन्दर्भ में इन अवधारणाओं को समझने से इनकी प्रकृति को सरल रूप में समझा जा सकता है।
बहुलवाद
बहुत सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जब किसी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक व्यवस्था के अन्दर अनेक उप-व्यवस्थाएं साथ-साथ विद्यमान रहती हैं तब इस दशा को हम ‘बहुलवाद’ अथवा बहुलताबाद कहते हैं। बहुलवाद मूल रूप से इस मान्यता पर आधारित है कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समूह अपनी भिन्नता के बाद भी एक देश में साथ-साथ रह सकते हैं तथा देश की समृद्धि में सकारात्मक योगदान कर सकते हैं।
बहुलवाद एक ऐसी दशा है जिसमें एक-दूसरे से भिन्न धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र अथवा विश्वासों से सम्बन्धित समूहों में से किसी को अविश्वास की निगाह से नहीं देखा जाता, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय मामलों में हिस्सेदारी करने के पूर्ण अवसर दिये जाते हैं। इस दृष्टिकोण से बहुलवाद का सम्बन्ध चार प्रमुख आधारों से है-
(1) सहिष्णुता, (2) पारस्परिक सहयोग, (3) समूहों के बीच अच्छे सम्बन्ध, तथा (4) सांस्कृतिक पहचान सहिष्णुता एक ऐसी दशा है जिसमें एक-दूसरे से भिन्न विशेषताओं वाले समूहों के बीच किसी तरह के पूर्वाग्रह न हों उनमें एक-दूसरे की संस्कृति और व्यवहारों के प्रति समानता की भावना हो। सहिष्णुता की विशेषता पारस्परिक सहयोग पर आधारित होती है। यह सहयोग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित होता है।
विभिन्न समूहों के बीच अच्छे सम्बन्ध होना बहुलवाद की आवश्यक दशा है। यदि किसी राज्य में एक-दूसरे से भिन्न धार्मिक या भाषायी समूहों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता हो तथा उनके बीच समय-समय पर संघर्ष होते रहते हो तो इससे बहुलवाद के सामने संकट पैदा हो जाता है। बहुलवाद एक ऐसी दशा है जिसमें एक-दूसरे से भिन्न विशेषताओं वाले समूह किसी दबाव या डर से अपनी विशेषताओं को बहुसंख्यक संस्कृति में विलीन नहीं कर देते बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखते है।
इस अर्थ में बहुलवाद की दशा सात्मीकरण से भिन्न है। सात्मीकरण वह दशा है जिसमें कोई समूह अपने से प्रभावशाली समूह की संस्कृति में अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को विलीन करा और इस प्रकार विभिन्न समूहों के सांस्कृतिक व्यवहारों में बाहरी तौर पर कोई अन्तर नहीं रह जाता दूसरी और बहुलवाद यह दशा है जिसमें विभिन्न समूह अपनी विशेष सांस्कृतिक विशेषताओं, सामाजिक नियमों, व्यवहार के तरीकों और उप व्यवस्थाओं को बनाये रखते हैं।


हारलम्बोस ने लिखा है कि बहुलवाद एक ऐसी अवधारणा है जिसके द्वारा लोकतान्त्रिक समाजों में शक्ति के वितरण की प्रकृति को समझा जाता है। मार्क्स तथा अनेक दूसरे विचारक जहां यह मानते हैं कि शाक्ति का केन्द्रीकरण केवल कुछ प्रभावपूर्ण समूहों में होता है, वहीं बहुलवादी परिप्रेक्ष्य यह मानकर चलता है कि समाज में शक्ति बहुत से समूहों में फैली हुई होती है।
हारलम्बोस का विचार है कि औद्योगीकरण बढ़ने से जब समाज में एक-दूसरे से भिन्न हितों वाले समूहों में वृद्धि होना आरम्भ हुई तब एक ओर श्रम-विभाजन बढ़ा तथा दूसरी ओर एक दूसरे से भिन्न व्यावसायिक समूहों का विकास होने लगा। सभी व्यावसायिक समूहों के हित और आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होने के कारण ऐसे संगठनों का निर्माण होने लगा जिनके द्वारा वे अपनी शक्ति को बढ़ाकर अपने हितों को पूरा कर सकें।
फलस्वरूप किसी विशेष समूह द्वारा अपने से भिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं और व्यवहार प्रतिमान वाले समूह को अपनी अधीनता में रखना सम्भव नहीं रह गया । इसी के फलस्वरूप सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का जो नया रूप हमारे सामने आया उसी को हम बहुलवाद कहते हैं। वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में एक-दूसरे भिन्न विचारधाराओं वाले अनेक राजनीतिक दल अपनी शक्ति को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। सत्ता में आने के लिए उन्हें अधिक-से-अधिक लोगों का सर्मथन पाने की जरूरत होती है।
इसके लिए राजनीतिक दलों की यह कोशिश रहती है कि वे एक-दूसरे से भिन्न हितों और विशेषताओं वाले समूहों के बीच सन्तुलन स्थापित करके उनका समर्थन प्राप्त करें। जो राजनीतिक दल सत्ता में आकर सरकार बनाता है, उसके लिए यह जरूरी होता है कि वह अपनी शक्ति को स्थायी बनाये रखने के लिए सभी तरह समूहों की इच्छाओं पर खरा उतरे तथा उनके बीच यदि कोई छोटे-मोटे मतभेद हों तो उन्हें दूर करके एक साझी संस्कृति को विकसित करे। यह दशा भी बहुलवाद में वृद्धि करती है।
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बहुलवाद, बहुल-संस्कृतिवाद तथा सांस्कृतिक सापेक्षवाद | 1. बहुलवाद क्या है? भारतीय समाज में बहुलवाद 2. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के 5 आधार |
भारतीय समाज में बहुलवाद
भारत के सन्दर्भ में बहुलवाद की दशा को स्पष्ट करते हुए एम. एन. श्रीनिवास ने लिखा है कि यहां स्वतन्त्रता से पहले तक पवित्रता और अपवित्रता के आधार पर विभिन्न जातियों और उप-जातियों की दूरी निरन्तर बढ़ रही थी. वहीं एक आज ऐसी संस्कृति को प्रोत्साहन मिला है जिसमें विभिन्न जातियां संगठित होकर अपने बड़े-बड़े संघों की स्थापना कर रही हैं।
इसके फलस्वरूप यहां के आर्थिक और राजनैतिक जीवन में जिन जातियों का कोई योगदान नहीं था, उनकी आर्थिक और राजनीतिक पहचान स्पष्ट होने लगी प्रोफेसर एम.सी. दुबे ने बहुलवाद की प्रकृति को आधुनिकीकरण से जोड़कर स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा कि आधुनिकीकरण के कारण भारत की वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था समाज के केवल संभ्रान्त वर्ग से प्रभावित नहीं है, बल्कि सभी क्षेत्रों में मध्यम वर्ग और विभिन्न जाति समूहों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। संचार के क्षेत्र में होने वाली क्रान्ति ने सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाकर बहुलवाद को प्रोत्साहन दिया है।


भारत में बहुलवाद का एक विशेष रूप सांस्कृतिक अभिसरण (Cultural Convergence) के रूप देखने को मिलता है। अभिसरण का तात्पर्य विभिन्न वाले समूहों की व्यवहार के तरीकों और भौतिक लक्षणों का एक सामान्य बिन्दु पर मिलना है। अभिसरण की प्रक्रिया ऐच्छिक होती है तथा इसे दबाव के द्वारा प्रभावपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।
अभिसरण के द्वारा किसी विशेष सांस्कृतिक समूह की अपनी पहचान समाप्त नहीं होती। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें विभिन्न भाषायी, धार्मिक, क्षेत्रीय और जातिगत समूह अपनी समूह अपनी मौलिक सांस्कृतिक विशेषताओं को बनाये रखने साथ ही दूसरे की सांस्कृतिक विशेषताओं से इस तरह अभियोजन कर लेते हैं जिससे वे राज्य अथवा समाज सभी क्षेत्रों में मिलजुल कर भागीदारी कर सकें। भारत में बहुत प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रजातियों की शारीरिक विशेषताओं वाले लोग साथ-साथ रहते आये हैं। धार्मिक आधार पर यहां विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के लोग रहते हैं तथा सभी को अपने धार्मिक विश्वासों को बनाये रखने और उन्हें विकसित करने की स्वतन्त्रता मिली हुई है।
एक ही धर्म से सम्बन्धित लोग अनेक सम्प्रदायों और मतों में विभाजित हैं तथा सभी सांस्कृतिक समूहों के व्यवहार- प्रतिमान एक-दूसरे से अलग है। सम्पूर्ण भारतीय समाज बहुत से भाषायी समूहों में विभाजित है वर्ष 2011 में भारत के संविधान द्वारा बोडो, संथाली, मैथिली तथा डोगरी भाषा को मान्यता देने के बाद अब संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण देश अनेक क्षेत्रों में विभाजित है तथा प्रत्येक क्षेत्र की सांस्कृतिक और आर्थिक विशेषताओं में काफी भिन्नता देखने को मिलती है।
सभी समूह अपनी जिन्ताओं को स्वीकार करने के बाद साथ-साथ रहते हुए राष्ट्र के सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में समान रूप से योगदान करते हैं। यह सभी दशाएं भारत को एक बहुलवादी समाज के रूप में स्पष्ट करती हैं।