पूंजी निर्माण क्या है? पूंजी निर्माण अर्थ परिभाषा

पूंजी निर्माण भी किसी देश की आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व है। पूँजी मानव द्वारा निर्मित उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है और यह बचत का परिणाम होती है। अतः मानवीय प्रयत्नों द्वारा पूँजी की पूर्ति में वृद्धि की जा सकती है। इस प्रकार किसी देश में एक निश्चित अवधि में पूंजी के कोष में जो कि समाज के उपलब्ध प्रचलित साधनों के एक भाग का प्रयोग पूँजीगत वस्तुओं के कोष को बढ़ाने में किया जाता है जिससे भविष्य में उपभोग्य वस्तुओं का उत्पादन हो सके।

पूंजी निर्माण

पूँजी निर्माण का अर्थ यह है कि समाज अपनी सम्पूर्ण उत्पादन क्षमता की उपभोग सम्बन्धी तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं लगाता, वरन इसका एक अश पूँजीगत वस्तुओं अर्थात् यत्र, उपकरण तथा यातायात की सुविधाओं एवं संयंत्र इत्यादि वास्तविक पूँजी के विभिन्न रूपों, जिनसे उत्पादन, सम्बन्धी क्रियाओं की क्षमता में वृद्धि होती है, के निर्माण के लिये लगाता है।

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पूंजी निर्माण

कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि केवल पूंजी निर्माण से ही आर्थिक विकास सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि पूँजी के अतिरिक्त उत्पादन के और भी साधन हैं तथा आर्थिक विकास कुछ अन्य आर्थिक तथ्यों एवं सामाजिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि पूँजी एक मानव निर्मित साधन है, आर्थिक विकास के क्रम में पूँजी के सामने उत्पादन के अन्य साधनों की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए।

किसी देश की जनसंख्या अथवा मानवीय साधन इसके आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व होता है। आर्थिक विकास में जनसंख्या का बहुत बड़ा योगदान होता है। आर्थिक विकास मुख्यतः प्राकृतिक साधन एवं पूँजी तथा मानवीय साधन पर निर्भर करता है क्योंकि इन्हीं के सहयोग से उत्पादन होता है। लेकिन प्राकृतिक साधन एवं पूँजी उत्पादन के निष्क्रिय साधन है जबकि मानवीय साधन उत्पादन के सक्रिय साधन हैं, सक्रिय मानवीय साधन के सहयोग से ही प्राकृतिक साधनों एवं पूँजी देश में वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन मानवीय साधन के बगैर सम्भव नहीं है।

प्रत्येक देश का वार्षिक श्रम वह कोष है जो मौलिक रूप से जीवन की सभी अनिवार्यताओं एवं सुविधाओं की पूर्ति करता है।

एडम स्मिथ

किसी देश का आर्थिक विकास उसकी जनसंख्या के आकार गुण, जनसंख्या की वृद्धि दर बनावट तथा पेशेवर विभाजन पर निर्भर करता है। आर्थिक विकास एवं उत्पादकता में वृद्धि के लिये यह आवश्यक है कि देश की जनसंख्या में तो वृद्धि हो लेकिन साथ-साथ लोग शिक्षित कार्यकुशल परिश्रमी एवं स्वस्थ हो । विकसित देशों के आर्थिक इतिहास के अध्ययन से आर्थिक विकास में जनसंख्या का योगदान स्पष्ट हो जाता है।

लेकिन इस अवधि में जहाँ इन देशों में जनसंख्या में पाँच गुनी वृद्धि हुई वहाँ प्रति व्यक्ति आय में दस गुनी हुई। प्रति व्यक्ति आय में इस अप्रत्याशित वृद्धि का मुख्य कारक मानवीय साधन का विकास था जो श्रमिक वर्ग की कार्य क्षमता अथवा उत्पादकता के रूप में प्रकट होता है। इसे मानवीय पूंजी निर्माण भी कहते हैं जो शिक्षा स्वास्थ्य एवं सामाजिक सेवाओं पर किये गये व्यय पर निर्भर करता है।

इस प्रकार आर्थिक विकास के संदर्भ में जनसंख्या के दो पहलू हैं- (i) संख्यात्मक तथा (ii) गुणात्मक। आर्थिक विकास के लिए किसी देश की जनसंख्या का संख्या एवं गुण दोनों में पर्याप्त होना चाहिए। जनसंख्या के गुणात्मक पहलू का मतलब श्रम शक्ति में ज्ञान एवं कार्यक्षमता में वृद्धि से है। यदि किसी देश की आबादी आवश्यकता से कम है तो जनसंख्या में वृद्धि वहाँ के आर्थिक विकास में सहायक होती है क्योंकि इससे कृषि, उद्योग एवं अन्य व्यवसायों में काम करने के लिये श्रम शक्ति उपलब्ध हो जाती है।

कृषि उद्योग एवं व्यवसायों में लगे श्रमिकों को जब आय प्राप्त होती है तो उनकी माँग उपभोग एवं कार्य क्षमता में वृद्धि होती है जिससे उत्पादन को और अधिक प्रोत्साहन मिलता है। इसके फलस्वरूप बचत एवं पूंजी निर्माण को बढ़ावा मिलता है और श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण भी समय हो जाते हैं जिससे आर्थिक विकास की गति तीव्र होती है। इस प्रकार जनसंख्या आर्थिक विकास को प्रभावित करती है।

लेकिन आवश्यकता से अधिक तथा तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक होती है। जनसंख्या की अधिकता से देश में बेरोजगारी बढ़ती है, प्राकृतिक साधनों पर लोगों की भीड़ बढ़ जाती है तथा उत्पादन पर्याप्त नहीं हो पाता। जो कुछ उत्पादन होता भी है वह जनसंख्या के पोषण में समाप्त हो जाता है ? तथा बचत बहुत कम होती है।

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पूंजी निर्माण

बचत की कमी से बचत पूंजी निर्माण कम होता है जिससे उत्पादकता में कमी होती है तथा आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या की वृद्धि से लोगों की माँग तो तेजी से बढ़ती है लेकिन पूर्ति में उसी अनुपात में वृद्धि नहीं होने से मूल्यों में तजी से स्फीतिजनक वृद्धि होती है और आम जनता का जीवन स्तर निम्न होता जाता है।

इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि का आर्थिक विकास पर अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ सकता है। पश्चिम के विकासित देशों में जनसंख्या वृद्धि का तो अनुकूल प्रभाव पड़े लेकिन इसके विपरीत अल्प- विकसित एवं अविकसित देशों में इसके प्रतिकूल प्रभाव ही देखने को मिल रहे है। भारत में भी वही स्थिति है। अतः इन देशों में आर्थिक विकास के लिये जनसंख्या का प्रभाव पूर्ण नियंत्रण एवं श्रमिकों की कार्यक्षमता में वृद्धि करने की नितान्त आवश्यकता है।

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