परिवर्तन की प्रकृति प्रभाव व प्रबंध पर प्रभाव

रिचार्ड के. एलन के अनुसार, “एक संगठन में परिवर्तन इतना अनिवार्य है कि संगठन और उसमे कार्यरत व्यक्तियों को समय के व्यतीत होने पर या तो आगे बढ़ना होगा अथवा पीछे हटना होगा। वे एक लम्बे समय तक स्थिर नहीं रह सकते। यही स्थिति व्यवसाय एवं उद्योग की है।

इस सम्बन्ध में डब्ल्यू, वी. मेरीह्यूम का कथन है कि “वर्तमान गतिशील व्यवसाय में यदि कोई चीज स्थायी है तो वह परिवर्तन ही है। परिवर्तन अथवा नवाचार प्रतिस्पर्द्धा की सन्तान है। अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धा कार्य-प्रणालियों में जो एक-दूसरे के लिए कार्य कर रही है, परिवर्तन पूर्णतः अनिवार्य है। “कोई भी व्यवसाय स्थिरता की स्थिति में नहीं रह सकता। या तो इसे परिवर्तन के पहिये पर आगे बढ़ना चाहिये अन्यथा वह पीछे की ओर चला जायेगा।

परिवर्तन के प्रबन्ध’ की प्रक्रिया द्वारा प्रस्तावित परिवर्तन सम्पन्न किया जाता है। थामर्स तथा बेनिस के अनुसार, “किसी संरचनात्मक, नवधारणा, नवीन नीति अथवा संचालकीय दर्शन, पर्यावरण तथा कार्य में परिवर्तन करने की जान-बूझकर (सोच-समझकर) रूपरेखा बनाना तथा क्रियान्वित करना ही परिवर्तन का प्रबन्ध है।

श्री सियालगी के अनुसार, “परिवर्तन का प्रबन्ध वह प्रक्रिया, जिसके अन्तर्गत जान-बूझकर कुछ प्रक्रियाओं अथवा कार्यों में परिवर्तन अथवा संशोधन करने का प्रयास किया जाता है ताकि संस्था के अस्तित्व को सुरक्षित रखा जा सके।

परिवर्तन की प्रकृति

  1. प्रकृति का नियम परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लोगों को परिवर्तनशील परिस्थितियों व पर्यावरण में कार्य करना पड़ता है।
  2. व्यक्ति द्वारा प्रतिरोध व्यक्ति द्वारा परिवर्तन का प्रतिरोध किया जाता है क्योंकि वह निश्चित वातावरण में कार्य करने या रहने का आदी होता है।
  3. निरन्तर प्रक्रिया परिवर्तन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। यह अनियन्त्रणीय प्रक्रिया है।
  4. नियोजित परिवर्तन गतिविधियों, कार्यों व व्यवसाय की प्रक्रियाओं में नियोजित परिवर्तन।
  5. गति व डिग्री में परिवर्तन

परिवर्तनों के प्रकार

एडविन बी. फिलिप्पो के अनुसार परिवर्तन की श्रेणियों अग्रवत है-

  1. कर्मचारियों में परिवर्तन
  2. गतिविधियों में परिवर्तन
  3. संगठन संरचना एवं मौलिक स्थापना में परिवर्तन।

हेरॉल्ड जे, लेविट ने परिवर्तन को अग्रवत वर्गीकृत किया है-

  1. कार्य सम्बन्धी परिवर्तन
  2. व्यक्ति सम्बन्धी परिवर्तन
  3. तकनीक में परिवर्तन
  4. संरचना सम्बन्धी परिवर्तन

एक अन्य विद्वान ने परिवर्तन को अग्रवत वर्गीकृत किया है-

  1. कर्मचारियों में परिवर्तन
  2. संगठन संरचना में परिवर्तन
  3. संगठनात्मक संरचना के प्रारूप में परिवर्तन
  4. कार्य-पद्धति में परिवर्तन
  5. मशीन व उपकरण आदि में परिवर्तन।

परिवर्तन के प्रतिरोध के कारण

परिवर्तन के प्रतिरोध के कारण अग्रवत हैं-

  1. आर्थिक कारण
  2. अनिश्चितता
  3. असुविधा
  4. आदेशों एवं नियंत्रकों की संख्या
  5. श्रम संगठनों की प्रवृत्ति
  6. अन्तर- वैयक्तिक सम्बन्धों का भय
  7. संगठन के साथ स्थापित मनोवैज्ञानिक सम्बन्धों का टूटना
  8. शक्ति एवं नियंत्रण का अधिक केन्द्रीयकरण:
  9. नियोजन की कमी।

परिवर्तन का प्रबन्ध पर प्रभाव

  1. आन्तरिक परिवर्तन का प्रबन्ध पर प्रभाव
    • प्रबन्धकीय परिवर्तन – भावीविकास व क्षेत्र को प्रभावित करता है। इसमें अग्रांकित शामिल है-
      • प्रबन्ध के प्रारूप में परिवर्तन
      • संगठन में परिवर्तन
      • कार्मिक नीतियों में परिवर्तन।
    • संरचनात्मक परिवर्तन – यह संगठन की संरचना को प्रभावित करता है। इसमें अग्रॉकित शामिल है:
      • प्राधिकार का केन्द्रीयकरण
      • संगठन के प्रारूप में परिवर्तन
      • प्राधिकार का विकेन्द्रीयकरण।
  2. बाह्य परिवर्तनों का प्रबन्ध पर प्रभाव
    • आर्थिक परिवर्तन – आर्थिक परिवर्तन अग्रोक्ति रूपों में हो सकते हैं:
      • आर्थिक नीति में परिवर्तन
      • मुद्रा में परिवर्तन
      • आर्थिक एवं मौद्रिक नीति में परिवर्तन
      • निर्यात-आयात नीति में परिवर्तन।
    • स्थिति सम्बन्धी परिवर्तन – इसमें अग्रंकित शामिल है।
      • बाजार का क्षेत्र
      • कच्चे माल के श्रोत
      • परिवर्तनों के श्रोत
      • संचार के श्रोत
      • स्थानीय सुविधायें तथा भूमिकायें।
    • सामाजिक परिवर्तन – समाजशास्त्रीय परिवर्तनों में अग्रोकित को शामिल किया जाता है-
      • जीवन स्तर में परिवर्तनविश्वव्यापी व्यावसायिक प्रकृति में परिवर्तन
      • व्यक्तिगत संतुष्टि में कमीव्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की स्वीकृति
      • बेरोजगारी के आकार में वृद्धि।
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