नियोजन से आशय ऐसी क्रिया से लगाया जाता है जिसमे यह तय किया जाता है कि यो किया जायेगा, कहाँ किया जायेगा, कम किया जायेगा, कौन करेगा, किस विधि से किया जायेगा और क्या कार्य किया जायेगा। दूसरे शब्दों में किसी व्यवसाय अथवा प्रौद्योगिकी संस्था के संबंध में निर्णय लेने को ही नियोजन कहते है।
नियोजन परिभाषाएं
नियोजन के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने अपनी परिभाषाएं निम्नलिखित दी है-
नियोजन भविष्य में झांकने की एक विधि या तकनीक है तथा भावी आवश्यकताओं का एक रचनात्मक पुनर्निरीक्षण है जिससे कि वर्तमान क्रियाओं को निर्धारित लक्ष्यों के संदर्भ में समायोजित किया जा सके।
जार्ज आर टेरी
नियोजन के अन्तर्गत इस बात का समावेश किया जाता है कि क्या करना है, कैसे और कहां करना है कौन करेगा तथा परिणामों का किस प्रकार मूल्यांकन किया जाना है। प्रारम्भिक क्रिया के रूप में नियोजन एक ऐसी आधारशिला के विकास का परिणाम होती है जिसके अनुसार समन्वय, अभिप्रेरणा एवं नियंत्रण किया जा सकता है।
व्यावसायिक नियोजन एक बौद्धिक क्रिया है, किसी किया के कारण का सचेत निर्धारण है, निर्णयों को लक्ष्यो, तथ्यों तथा पूर्व-विचारित अनुमानों पर आधारित करता है।
कूण्टज और ओडोनेल
नियोजन प्रबन्ध की वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत प्रबन्धक को पहले से ही निर्णयों को लेना पड़ता है कि वह क्या करेगा। यह एक विशिष्ट निर्णयन प्रक्रिया है जिसका सार तत्व इसकी भविष्यता है। यह एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसके लिए सृजनात्मक चिंतन एवं कल्पना की आवश्यकता होती है।
हेयंश एवं मैसी
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जो भी साधन उपलब्ध होते हैं, उनकी सहायता से भविष्य के कार्यक्रमों के सम्बन्ध में जो भी कार्य सम्पन्न किये जायेंगे उनमें से सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुनना ही नियोजन कहलाता है।
नियोजन का महत्व
नियोजन के महत्व का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-
- भावी अनिश्चितताओं का सामना करने के लिए – नियोजन से भावी अनिश्चितताओं का पता लगाने में सहायता मिलती। जिसके परिणामस्वरूप संख्या के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
- नियंत्रण कार्य में सहायक – नियोजन के द्वारा प्रमाप निर्धारित किये हैं फिर वास्तविक निष्पादन की प्रमापों से तुलना की जाती है जो अनुकूल य प्रतिकूल हो सकते हैं। इस प्रकार नियोजन नियंत्रण में सहायक होता है।
- उद्देश्यों का समीकरण – नियोजन के द्वारा उद्देश्यों को स्पष्ट किया जाता है और उन्हें प्राप्त करने के प्रयत्न किये जाते हैं, इससे प्रबन्धकों के. निर्णय लेते समय आसानी होती है।
- संचालन में मितव्ययिता – नियोजन के द्वारा कम . से कम लागत और अधिकतम साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है और उसी आधार पर कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप संचालन में मितव्ययिता आती है।
- कार्यकुशलता में वृद्धि – नियोजन लालफीताशाही को समाप्त करके संगठन को प्रभावी बनाता है जिसके परिणामस्वरूप समय श्रम और धन की बचत होती है और कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
- कार्यों में समन्वय – प्रबन्धकीय कार्यों के बोच समन्वय स्थापित हो जाता है। संगठन के सभी विभाग एक-दूसरे से कदमनियोजन से से कदम मिलाकर चलते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति करते है।
- राष्ट्र निर्माण में सहायक – नियोजन का महत्व केवल व्यावसायिक संगठनों में ही नहीं देखने को नहीं मिलता है बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है। भारत में पंचवर्षीय योजना की सफलता का रहस्य सिर्फ नियोजन है।
नियोजन के उद्देश्य
एक व्यावसायिक संस्था में नियोजन के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं –
- पूर्वानुमान लगाने में सहायक – नियोजन का मुख्य उद्देश्य संस्था से सम्बन्धित भावी पूर्वानुमानों के आधार पर वर्तमान के लिए योजना बनाना होता है। पूर्वानुमान को नियोजन का रूप कहा जाता है।
- जोखिम को परखना – नियोजन के माध्य उसे भविष्य की पूर्व कल्पना की जाती और परिणामों का पूर्वानुमान लगाया जाता है। इसके समय जोखिमों एवं सम्भावनाओं को भी परखा जाता है।
- क्रियाओं में निश्चितता – नियोजन का उद्देश्य संस्था की क्रियाओं में निश्चितता पैदा करना भी होता है। इस प्रकार नियोजन के द्वारा संस्था की क्रियाओं में निश्चितता लाने का प्रयास किया जाता है।
- जानकारी प्रदान करना – नियोजन का उद्देश्य जानकारी प्रदान करना भी होता है। नियोजन के माध्यम से संस्था से संबंधित सभी लोगों को उनके लक्ष्यों एवं उन्हें प्राप्त करने की विधियों की जानकारी दी जाती है।
- प्रतिस्पर्धा बनाये रखना – नियोजन का उद्देश्य प्रतिस्पर्धा बनाये रखना भी होता है। नियोक्ता की क्रियाओं के द्वारा संस्था के सम्पूर्ण संगठनमेंएकस्वरूप प्रतिस्पर्धा का वातावरण पैदा कर दिया जाता है।
- विशिष्ट दिशा प्रदान करना – नियोक्ता का उद्देश्य विशिष्ट दिशा प्रदान करना भी होता है। नियोजन के द्वारा संस्था के समस्त कार्यों की रूपरेखा तैयार करते समय विशिष्ट दिशा प्रदान की जाती है।
- लक्ष्य प्राप्त करना – नियोजन का उद्देश्य योजनानुसार कार्य संपन्न करके लक्ष्य प्राप्त करना होता है। इस प्रकार संस्था के लक्ष्यों को प्राप्त करना सरल हो जाता है।
- प्रबन्ध में मितव्ययिता – नियोजन का मुख्य उद्देश्य प्रबन्ध व्ययों में कमी लाना भी होता है। इसीलिये नियोजन के द्वारा संस्था की भावी योजनाएं बन जाने से प्रबन्ध का पूरा ध्यान इन योजनाओं को पूरा करने में लग जाता है जिसके परिणामस्वरूप क्रियाओं के अपव्यय के स्थान पर मितव्ययता आ जाती है।
- समन्वय स्थापित करना– नियोजन क मूल उद्देश्य समन्वय स्थापित करना होता है। इस प्रकार नियोजन के माध्यम से संस्था की नीतियों उद्देश्यों, कार्यविधियों एवं कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित किया जाता है।
- प्रतिस्पर्धा का सामना करने में सहायक – नियोजन का उद्देश्य प्रतिस्पर्धा का सामना करने में सहायता प्रदान करना भी होता है। इस प्रकार नियोजन के माध्यम से प्रतिद्वन्द्वियों की योजनाओं का सामना करने के लिए मोर्चाबन्दी की जाती है।
नियोजन की प्रकृति
नियोजन की प्रकृति निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है-
- नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है – नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है क्योंकि बिना किसी योजना के कोई भी प्रबन्धकीय कार्य प्रभावपूर्ण ढंग से नहीं किया जा सकता है। प्रबन्ध के अन्य कार्य नियोजन के बाद ही सम्पन्न होते हैं।
- नियोजन एक सतत् प्रक्रिया है – नियोजन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि व्यवसाय में दिन प्रतिदिन विभिन्न क्षेत्रों में अनेक निर्णय लेने पड़ते हैं तथा यह निर्णय लेने की क्रिया सदैव चलती रहती है।
- नियोजन के कुछ आधारभूत लक्ष्य होते हैं – नियोजन के कुछ आधारभूत लक्ष्य होते हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए उपक्रम की क्रियाएं सदैव तत्पर रहती है उपक्रम के लक्ष्यों का निर्धारण भी नियोजन द्वारा होता है।
- नियोजन प्रत्येक उपक्रम के लिए आवश्यक है – नियोजन प्रक्रिया प्रत्येक उपक्रम के लिए अपनाना आवश्यक होता है क्योंकि नियोजन के द्वारा ही उपक्रम के उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है तथा उपक्रम की क्रियाओं की रूपरेखा तैयार की जाती है।
- प्रबन्धकीय क्रियाओं में नियोजन सार्वभौमिक है – नियोजन की प्रक्रिया प्रबन्ध की प्रत्येक क्रिया में अपनाई जाती है। अतः प्रबन्धकीय क्रियू का आधार है।
- नियोजन का मुख्य उद्देश्य उपक्रम की कुशलता बढ़ाना है – नियोजन के द्वारा उत्पादन लागत को कम किया जाता है तथा उत्पादन की किस्म में सुधार किया जाता है जिससे उपक्रम को अधिक लाभ प्राप्त हो। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नियोजन का मुख्य उद्देश्य उपक्रम की कुशलता बढ़ाना है।
नियोजन की विशेषताएँ
नियोजन की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
- प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य – नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है। कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण कार्य है। संस्था का लक्ष्य जिसकी पूर्ति के लिए समस्त प्रबन्धकीय क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, नियोजन द्वारा ही निर्धारित किया जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रबन्ध के अन्य सभी कार्य सम्पन्न किये जाते हैं किन्तु यहाँ पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि नियोजन अन्य प्रबन्धकीय कार्यों से पृथक है, वास्तव में, यह पृथक् न होकर एकीकृत कार्य है।
- पूर्वानुमानों पर आधारित होना – फेयोल अनुसार, “नियोजन विभिन्न प्रकार के पूर्वानुमानों का चाहे वे अल्पकालीन हो अथवा दीर्घकालीन सामान्य अथवा विशिष्टत संश्लेषण होता है। चीनी कहावत के अनुसार, “अपनी वार्षिक योजनाएं बसन्त के मौसम में तैयार कीजिए तथा दैनिक योजनाएँ प्रातः काल उठते ही तैयार कीजिए एल. ए. हेलन के अनुसार, योजना भविष्य को पकड़ने के लिए तैयार किया गया पिंजरा है। होज तथा जॉनसन के अनुसार, “नियोजन अच्छे परिणामों को पाने हेतु भावी स्थितियों का पूर्वानुमान लगाने का प्रबन्ध कार्य है।”
- बौद्धिक प्रक्रिया – हैमन्स तथा मैसी के शब्दों में, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसके लिए सृजनात्मक चिन्तन की कल्पना की आवश्यकता होती है। मैक्किन्से के अनुसार, नियोजन प्रबन्धकीय चिन्तन का मूर्त प्रमाण है।
- एकता – हेनरी फेयोल के अनुसार, एक समय में केवल एक योजना लागू की जा सकती है। एक ही समय में एक से अधिक योजनाएं लागू करने से अल्पसंख्यक तथा संदेह होता है।
- सर्वव्यापी कार्य – यह एक सर्वव्यापी कार्य है। प्रबन्धन के अन्य कार्यों को भी नियोजित करना होता है।
- सतत् तथा गतिशील प्रक्रिया – नियोजन में निरन्तरता तथा लोच रहती है। इसमें परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करना सम्भव होता है।
नियोजन की प्रमुख सीमाएं
नियोजन की सीमाओं, कठिनाइयों एवं आलोचनाओं का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
- भावी घटनाओं की अनिश्चितता – नियोजन भावी घटनाओं पर आधारित होता है। चूंकि घटनाएं परिवर्तनशील होती है इसलिये मादी घटनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा रहता है इसलिए नियोजन करते समय पूर्वानुमान जितनी दीर्घकालीनअवधि के लिए बनाया जाता है उतना कम विश्वसनीय होगा। पूर्वानुमान नियोजन की आधारशिला है और जब आधारशिला अनिश्चित होगी तो निर भी अनिश्चित होगा। अतः यह कहा जा सकता है कि नियोजन की सीमा भावी घटनाओं कीअनिश्चितता है।
- खर्चीली प्रक्रिया – नियोजन की प्रक्रिया में कई चरण पर कार्य किया जाता है। इस प्रकार नियोजन की सम्पूर्ण प्रक्रिया में काफी समय, श्रम और धन खर्च होता है जिसे सभी संस्थाएँ वहन नहीं कर सकती है। पूर्वानुमान लगाने में तथ्यों को संग्रह करने में, वैकल्पिक साधनों का पता लगाने में, उनका मूल्यांकन करने में, योजनाएं तैयार करने में काफी व्यय करना पड़ता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि जब भावी घटनाएं अनिश्चित है तो इतना गय करने से क्या फायदा।
- विश्वसनीय जानकारी का अभाव – नियोजन के लिये तथ्यों एवं सूचनाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि विश्वसनीय तथ्यों एवं उपलब्ध जानकारी के अभाव में योजना की उपयोगिता संकुचित हो जाती हैं क्योंकि विश्वसनीय सूचनाएं न मिलना अपने आप में एक समस्या है।
- कार्यों में देरी – नियोजन का मुख्य उद्देश्य उपलब्ध विकल्पों में सर्वोतम विकल्प चुनना होता है जिसको चुनने में बहुत समय लगता है जब कभी-कभी कुछ निश्चित क्षेत्रों में तुरन्त कार्य की आवश्यकता होती है। कभी-कभी संकट काल में लेना पड़ता है ऐसी स्थिति में यदि नियोजन किया जाता है तो अवसर का लाभ नहीं मिल पाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि नियोजन के कार्य में सर्वोत्तम विकल्प का चयन एक महत्वपूर्ण समस्या है।
- पर्याप्त लोच का अभाव – नियोजन की एक कठोरता का प्रतिबिम्ब माना जाता है। लोच का अभाव होने के कारण प्रबन्धकों में उत्साह नहीं रहता है। जिस समय योजनाएं बनाई जाती है और जिस समय योजनाएं लागू की जाती है, दोनों समय में काफी परिवर्तन हो जाता है। प्रबन्धक चाहते हैं कि नियोजन में कुछ परिवर्तन किया जाय लेकिन संशोधन नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार नियोजन में लोच का अभाव पाया जाता है।
- पहल पर रोक – नियोजन का यदि कठोरता से पालन किया जाता है तो कर्मचारियों की पहल करने की शक्ति का द्वारा होता है। इस सम्बन्ध मे आर. जी. टेरी ने कहा है कि “नियोजन कर्मचारियों की पहल की भावना का गला घोंट देता है और यह प्रबन्धकों को कठोर विधि से कार्य करने के लिये बाध्य करता है।
- अभिप्रेरण का अभाव – अभिप्रेरणा की कमी होने से संगठन के कर्मचारी नियोजन के प्रति उदासीन हो जाते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अभिप्रेरण का अभाव नियोजन की सीमा है।
- दोषपूर्ण नियोजन – नियोजन की सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण समस्या या कठिनाई स्वयं इसकी असंगत नीतियाँ, लम्बी कार्यविधियां, कड़े नियम, अस्पष्ट एवं अवास्तविक लक्ष्यों का निर्धारण है। इन स्थितियों में नियोजन का या तो विरोध होता है या कर्मचारियों का मनोबल गिरता है।
- बाहरी सीमाएँ – नियोजन का महत्व बाहरी घटनाएं कम कर देता है, जैसे आर्थिक दशाएं, सरकारी नीतियां, प्राकृतिक प्रकोप, हड़ताल, युद्ध,औद्योगिक बीमारियां इत्यादि। यह बाहरी सीमाएं नियोजन को कमजोर बना देती है।
- मनोवैज्ञानिक बाधाएँ – नियोजन के अनुसार कार्य करने में कुछ मनोवैज्ञानिक बाधाएं भी आती हैं। प्रबन्धक अधीनस्थों की राय नहीं लेते हैं जिसकी वजह से अधीनस्थ मन लगाकर काम नहीं करते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि नियोजन का उद्देश्य सफल नहीं होता है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक बाधाएं भी बाधक है।