निबन्धात्मक परीक्षा के 12 गुण दोष सीमाएँ व सुझाव

निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली परम्परागत है तथा यह विषयनिष्ठ होती है। साथ ही इसमें आत्मगत तत्व की प्रमुखता होती है। निबन्धात्मक परीक्षाओं से तात्पर्य ऐसी परीक्षण प्रणाली से है जिसके अन्तर्गत सभी शिक्षार्थी पाठ्यक्रम के कई प्रश्नों के उत्तर निश्चित समय के अन्दर निबन्ध के रूप में देते हैं।

इन परीक्षाओं में प्रश्नों के उत्तर इतने लम्बे होते हैं कि परीक्षक शिक्षार्थियों की विचार, तुलना, अभिव्यंजना, तर्क तथा आलोचना आदि शक्तियों के साथ-साथ विचारों को संगठित करने की योग्यता तथा भाषा एवं शैली आदि की जाँच भली-भाँति कर सकता है। निबन्धात्मक परीक्षा विश्वसनीय तथा वैध नहीं होती हैं, फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में इनका अधिक प्रयोग होता है। उच्च अधिगम उद्देश्यों के मापन के लिए निबन्धात्मक परीक्षाएँ ही सफलतापूर्वक प्रयुक्त की जा सकती हैं। निबन्धात्मक परीक्षा की सीमाएँ होते हुए भी इनको हटाया नहीं जा सकता है।

निबन्धात्मक परीक्षा के गुण

  1. सरल निर्माण– निबन्धात्मक प्रश्न-पत्रों के निर्माण में सरलता होती है। इसके लिए पूर्व प्रशिक्षण अथवा विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। परीक्षक को पाठ्यक्रम के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित कुछ चुने हुए पक्षों के निर्माण में कोई कठिनाई नहीं होती।
  2. सभी विषयों के लिए उपयुक्त निबन्धात्मक परीक्षाओं का प्रयोग प्रत्येक विषय के लिए किया जा सकता है। केवल कुछ ही ऐसी योग्यताएँ तथा कौशल हैं जिनके परीक्षण के लिए नवीन प्रकार की परीक्षाएँ आवश्यक है। अन्यथा ये सभी विषयों के लिए उपयुक्त हैं।
  3. विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता– इस परीक्षा में शिक्षार्थी को अपने विचारों की अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का अच्छा अवसर मिल जाता है। शिक्षार्थियों को प्रश्नों का उत्तर देने में पूरी-पूरी स्वतन्त्रता होती है। इस परीक्षा के द्वारा लेखन कुशलता, शैली, सुलेख, उद्धरणों एवं दृष्टान्तों का मापन निबन्धात्मक परीक्षा द्वारा ही सम्भव है।
  4. उचित अध्ययन को प्रोत्साहन – ये परीक्षाएँ वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की अपेक्षा बालकों को अध्य के अच्छे तरीके सीखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, क्योंकि ये केवल पहचान की अपेक्षा प्रत्यास्मरण, तथ्यों एवं उनके सम्बन्धों का अवगम करने एवं उच्च स्तर पर सोचने की प्रेरणा देती हैं।
  5. मानसिक योग्यताओं का मापन – निबन्धात्मक परीक्षा द्वारा छात्रों की स्मरण शक्ति के साथ-साथ तर्क, चिन्तन, आलोचना, अभिव्यंजना आदि का मूल्यांकन किया जा सकता है। उच्च मानसिक योग्यताओं एवं क्षमताओं का मूल्यांकन तथा मौलिकता का मापन निबन्धात्मक परीक्षाओं द्वारा ही सम्भव है।
  6. तथ्यों का दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग — निबन्धात्मक परीक्षणों के प्रश्न वर्णन करो, आलोचना करो, कारण बताओ तथा कथन की पुष्टि करो आदि शब्दों से प्रारम्भ होते हैं। इसमें जहाँ शिक्षार्थी एक और तथ्यों का वर्णन करते हैं और वहीं दूसरी ओर वे उनकी दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग करना भी सीखते हैं।
  7. समय, श्रम व धन की बचत — निबन्धात्मक परीक्षाओं का निर्माण तो सरल है ही, इसके मुद्रण एवं मूल्यांकन में श्रम, धन व समय की बचत होती है। इस परीक्षा द्वारा एक ही समय में अधिक परीक्षार्थियों की परीक्षा ली जा सकती है।
  8. व्यक्तित्व एवं चिन्तन विधि का मूल्यांकन यदि कोई शिक्षक ठीक प्रकार से निबन्धात्मक उत्तरों का अध्ययन करे तो उसे परीक्षार्थी के व्यक्तित्व एवं उसकी चिन्तन विधि के बारे में महत्त्वपूर्ण ज्ञान हो सकता है। क्योंकि इनमें परीक्षार्थी को स्पष्ट एवं प्रभावशाली विधि से अपने विचारों को व्यक्त करने का अवसर मिलता है।
  9. भाषा तथा शैली में सुधार—इन परीक्षाओं में भाषा लिखने पर अधिक बल दिया जाता है। इससे परीक्षार्थी को जहाँ एक ओर अच्छी भाषा लिखने का प्रशिक्षण मिलता है वहाँ दूसरी ओर वे विचारों को प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना भी सीख जाते हैं।
  10. शिक्षक की कुशलता की जाँच – निबन्धात्मक परीक्षाओं द्वारा जहाँ एक ओर शिक्षार्थी की मानसिक शक्तियों का परीक्षण होता है। वहाँ दूसरी ओर इनके द्वारा शिक्षक योजना, कुशलता एवं पटुता की जाँच भी आसानी से हो सकती है।
  11. नकल की कम सम्भावना – निबन्धात्मक प्रश्न काफी बड़े होते हैं इनमें भाषा-शैली एवं विषय-वस्तु की गहनता होने से ऐसे प्रश्नों में नकल करने की सम्भावना कम रहती है।
  12. गुणात्मक पक्षों का मूल्यांकन – इन परीक्षाओं द्वारा ज्ञान का गुणात्मक मूल्यांकन सम्भव है, विशेषकर शाब्दिक अभिव्यक्ति, साहित्यिक शैली, विचारों की व्यवस्थित प्रस्तुति के गुणात्मक पक्षों का मूल्यांकन करने के लिए निबन्धात्मक परीक्षाएँ ही उपयुक्त हैं।

निबन्धात्मक परीक्षा के दोष अथवा सीमाएँ

निबन्धात्मक परीक्षाओं में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-

  1. सर्वमान्य उद्देश्य का अभाव — निबन्धात्मक परीक्षा के प्रश्नों में किसी सर्वमान्य उद्देश्य का अभाव होता है। प्रश्न पूछने का क्या उद्देश्य है और इसके उत्तर में किस पाठ्य सामग्री की अपेक्षा जाँच की जाती है, इस बात पर विभिन्न परीक्षक एक मत नहीं हो पाते। परीक्षार्थी भी निश्चित रूप से नहीं जान पाते कि उत्तर में क्या सामग्री प्रस्तुत की जाए और प्रायः अटकल लगाकर लिख डालते हैं।
  2. वैधता की कमी – प्रत्येक मानक का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है, जिसका प्रयोग किसी विशिष्ट क्षेत्र के मापन के लिए ही किया जाता है। निबन्धात्मक परीक्षा द्वारा हम बालक की विभिन्न विषयों में उपलब्धि का सही और यथार्थ मापन नहीं कर पाते। इसके निम्नलिखित कारण हैं
    • प्रतिनिधित्व की कमी पूरे प्रश्न पत्र में 7 से 10 प्रश्न होते हैं। इतने कम प्रश्नों से वृहद विषय का मूल्यांकन असम्भव है। इसमें प्रामाणिकता में कमी आती है। इतना ही नहीं, एक तो प्रश्न कम आते हैं दूसरे ऐच्छिक होते हैं जिनमें 4-5 प्रश्नों का उत्तर देना होता है, इससे प्रामाणिकता में कमी आती है।
    • अप्रासंगिक तत्वों का मूल्यांकन – प्रश्न से सम्बन्धित तथ्यों के मापन के साथ-साथ अना ही अन्य चीजों का मापन हो जाता है; जैसे—लेखन – कुशलता, सुलेख, पृष्ठ संख्या, उद्धरणों और मुहावरों का प्रयोग, स्वच्छता आदि। इससे मापन की वैधता में कमी आती है।
    • रटने पर बल—ये परीक्षाएँ स्मरण शक्ति की योग्यता का मापन करती हैं । फलत: कुछ परीक्षार्थी परीक्षाफल में ही 10 से 14 घण्टों तक पाठ्यक्रम से चुने हुए कुछ प्रश्नों को रटते हैं और अच्छे शिक्षार्थी सामान्य कोटि में आ जाते हैं।
    • अंक प्रदान करने की आत्मनिष्ठता – निवन्धात्मक परीक्षाओं में उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की कोई प्रमापीकृत विधि नहीं होती अपितु इनमें अंक प्रदान करते समय परीक्षक की आत्मनिष्ठता का महत्वपूर्ण स्थान होता है अर्थात् इन परीक्षाओं पर शिक्षक की रुचि, योग्यता तथा मूड के साथ-साथ उसके मानसिक दृष्टिकोण का गहरा प्रभाव पड़ता है।
  3. विश्वसनीयता की कमी— कोई भी परीक्षण तभी विश्वसनीय होता है जबकि उसके द्वारा बार-बार मापन किया जाए तथा परिणाम मान लगभग एक समान और स्थिर हो। एक ही उत्तर-पुस्तिका के विभिन्न परीक्षकों द्वारा या एक ही परीक्षक द्वारा भिन्न-भिन्न समय पर किये गये मूल्यांकन से प्राप्त अंकों में काफी विषमता पायी जाती है।
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  1. पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित– निबन्धात्मक परीक्षा से केवल इस बात की जाँच की जाती है कि परीक्षार्थियों ने पुस्तकों में निहित ज्ञान को किस सीमा तक आत्मसात किया ? इस परीक्षा में उनकी संवेदनाओं, भावनाओं, अन्य गुणों व कौशलों की जाँच नहीं हो पाती, इससे यह भी जाँच नहीं हो पाती कि पुस्तकों में दिये गये ज्ञान को प्रयोग करने की शिक्षार्थी में कितनी क्षमता है।
  2. उद्दीपन की कमी — इस परीक्षा के अन्तर्गत छात्रों को स्थायी रूप से ज्ञान प्राप्त करने को उद्दीपन नहीं मिल पाता। शिक्षार्थियों को ऐसी सामग्री रटनी पड़ती है जिसका उनके वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इस कमी के कारण शिक्षार्थियों में सीखने की प्रवृत्ति का विकास नहीं होता। शिक्षार्थी केवल परीक्षा को उत्तीर्ण कर लेना ही अपना उद्देश्य मान बैठते हैं।
  3. उत्तरों के सम्बन्ध में अनिश्चितता – परीक्षा की इस प्रणाली में उत्तर लिखने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं होता। प्रत्येक छात्र अपने ढंग से प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करता है। वे प्रायः ज्ञान की क्रमबद्धता, तर्कपूर्णता तथा समुचितता की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते। वे सामान्यतः भाषा-शैली के आधार पर परीक्षकों को धोखा देने का ही प्रयत्न करते हैं। परीक्षकों के पास भी ऐसा कोई पूर्व निश्चित मापदण्ड नहीं होता जिसके आधार पर वे यह निश्चित कर सके कि उत्तर के किस रूप अथवा प्रारूप को वे श्रेष्ठ मानें।
  4. लिखने की गति और शैली पर अधिक बल – जिस बात को मापने के लिए परीक्षण का निर्माण किया जाता है उस विषय की वास्तविक जाँच इन परीक्षाओं से नहीं हो पाती, वरन् इसमें प्राय: सही भाषा, सुन्दर हस्तशिल्प और प्रभावकारी अभिव्यक्ति के आधार पर अंक दे दिये जाते हैं। अतएव इस परीक्षण में वैधता की भी कमी हो जाती है।
  5. भविष्यवाणी करना कठिन — निबन्धात्मक परीक्षाओं में अंक प्राप्ति शिक्षार्थियों की रटने की शक्ति पर निर्भर है। अतः इन परीक्षाओं के परिणामों के आधार पर यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाला छात्र सामान्य ज्ञान, व्यवहार में भी प्रथम होगा।
  6. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य में बाधक स्वरूप – इन परीक्षाओं में शिक्षार्थी अपनी विभिन्न मानसिक शक्तियों के अभाव में अपने ज्ञान का प्रयोग करने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए प्रायः ऐसा देखा खाता है कि विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक प्रश्नों के पूछे जाने पर शिक्षार्थियों का प्रस्तुतीकरण संतोषजनक नहीं होता। वे केवल रटे ज्ञान को यथानुरूप प्रस्तुत कर सकता है, किन्तु उनमें यथानुरूप उदाहरण प्रस्तुत करने तथा प्राप्त ज्ञान को नवीन परिस्थितियों में संयुक्त करने की क्षमता का अभाव होता है।
  7. मूल्यांकन में कठिनाई — निबन्धात्मक परीक्षाओं में उचित मूल्यांकन सम्भव नहीं है। अभी तक कोई ऐसा निश्चित मापदण्ड नहीं बनाया गया जिसकी सहायता से शिक्षार्थियों की प्रगति का उचित मूल्यांकन किया जा सके। कभी-कभी तो एक अथवा दो अंकों की कमी के कारण वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं अथवा उचित श्रेणी पाने में असफल हो जाते हैं।
  8. साधन नहीं साध्य – परीक्षा शिक्षार्थी की स्थिति के मापन का एक साधन मात्र है। इस यथार्थ स्थिति का आंकलन करने पर ही उसके भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में कोई निर्णय लिया जा सकता है। वस्तुत: शिक्षा के प्रमुख लक्ष्य सर्वांगीण विकास की प्राप्ति में शिक्षार्थी की स्थिति के सम्बन्ध में निरन्तर प्रमाण प्रस्तुत करते हुए परीक्षा को एक साधन के रूप में प्रयुक्त होना चाहिए, लेकिन आज परीक्षा एक साधन न होकर साध्य के रूप में है। किसी भी प्रकार शिक्षार्थी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना ही अपना लक्ष्य मानने लगे हैं।
  9. खर्चीली तथा अधिक समय लेने वाली — त्रैमासिक, षट्मासिक अथवा वार्षिक परीक्षाओं के समय का अधिक अपव्यय होता है तथा प्रश्न पत्र निर्माण और उत्तर पुस्तिकाओं में अधिक धन खर्च होता है। इस प्रकार निबन्धात्मक परीक्षा अधिक खर्चीली और समय लेने वाली है। सुधार हेतु सुझाव

निबन्धात्मक परीक्षा में सुधार हेतु सुझाव

निबन्धात्मक परीक्षा के दोषों को ध्यान में रखते हुए उन्हें दूर कर उसे शिक्षार्थियों की बौद्धिक कुशलताओं, सृजनात्मक क्षमताओं आदि की दृष्टि से अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। यह सुधार निम्न प्रकार सम्भव हैं—

  1. प्रश्न-पत्रों के निर्माण में परिवर्तन
    • परीक्षकों को प्रश्न-पत्र बनाते समय केवल उन्हीं प्रश्नों को छाँटना चाहिए जिनके द्वारा शिक्षक को उद्देश्य प्राप्त हो सकें।
    • प्रश्न-पत्र के अन्दर पाठ्यक्रम के प्रत्येक प्रसंग पर प्रश्न पूछने चाहिए। इससे निर्धारित विषय की पूरी जाँच सम्भव हो सके।
    • प्रश्न-पत्र के सभी प्रश्न अनिवार्य होने चाहिए। यदि विकल्प पूछे भी जायें तो विकल्प एक ही प्रश्न के अन्तर्गत रखे जायें।
    • प्रश्न सरल, सीधे तथा प्रत्यक्ष होने चाहिए। प्रश्नों की भाषा परीक्षार्थियों के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिए।
    • प्रश्न-पत्र में प्रश्न मन्द, औसत तथा प्रखर बुद्धि परीक्षार्थियों के मानसिक स्तर के अनुकूल होना चाहिए।
    • प्रश्न-पत्र में निबन्धात्मक प्रश्नों के साथ नवीन प्रकार के प्रश्न भी होने चाहिए। इसमे शैक्षणिक निष्पत्तियों के मापन में अधिक वैधता एवं विश्वसनीयता आ जाती है।
    • प्रश्नों के पूर्णांक समान होने चाहिए। एक ही प्रश्न के पृथक्-पृथक् भागों पर अंकों का विवरण पहले से ही निश्चित कर लेना चाहिए।
    • प्रश्न-पत्र में प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उस दशा में प्रश्न कुछ छोटे-छोटे होंगे और उचित मानसिक शक्तियों को ठीक प्रकार से जाँच न कर सकेंगे।
  1. परीक्षण के ढंग में परिवर्तन
    • जिन कक्षाओं की परीक्षाएँ बोर्ड द्वारा होती हैं उन्हें छोड़कर किसी अन्य कक्षा की परीक्षाएँ बिल्कुल न हों। वरन् उनके सभी परीक्षार्थियों की वर्ष भर की प्रगति के आधार पर कक्षोन्नति कर देनी चाहिए।
    • इन परीक्षाओं के साथ-साथ शिक्षार्थियों की मौखिक परीक्षाएँ भी होनी चाहिए। इससे उनकी योग्यता तथा उसे प्रयोग करने की क्षमता का परीक्षण सफलतापूर्वक हो जायेगा।
    • शिक्षार्थियों की मौखिक परीक्षा लेने के लिए कम-से-कम दो परीक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए। इससे आत्मनिष्ठ दोष कम हो जायेगा।
  2. उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में सुधार
    • शिक्षार्थियों तथा परीक्षक दोनों का प्रश्न-पत्र में पूछे गये प्रश्नों के उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए।
    • उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने से पहले प्रश्न के सम्बन्ध में विशिष्ट नियम तैयार कर लेना चाहिए। साथ ही अंकन विधि को भी स्पष्ट कर देना चाहिए।
    • किसी भी प्रश्न का मूल्यांकन करने से पहले परीक्षक को कुछ उत्तर पुस्तकें पढ़ना चाहिए। इससे उनको इस बात का पता लग जायेगा कि बालकों ने सामान्यतः किस प्रकार उत्तर लिखे हैं।
    • समस्त उत्तर-पुस्तकों का मूल्यांकन यथासम्भव एक ही परीक्षक के द्वारा होना चाहिए, इससे अंकों की विविधता पर नियन्त्रण हो जायेगा
    • निबन्धात्मक परीक्षाओं में उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने से पूर्व परीक्षक को प्रश्नों के आदर्श उत्तर तैयार कर लेना चाहिए।
    • सिम्स के अनुसार, निबन्धात्मक प्रश्नों के मूल्यांकन के लिए समस्त उत्तर-पुस्तिकाओं को सरसरी तौर पर पढ़कर पाँच भागों में विभाजित कर लेना चाहिए-
      • बहुत उत्तम,
      • उत्तम,
      • सामान्य,
      • सामान्य से नीचे,
      • निकृष्ट। तत्पश्चात् उत्तर-पुस्तिकाओं को दुबारा ध्यानपूर्वक पढ़कर वर्गीकरण में सुधार कर लेना चाहिए।

कुछ विश्वविद्यालयों ने बाह्य एवं आंतरिक परीक्षाओं की व्यवस्था की है। इन दोनों परीक्षाओं के 10 प्रतिशत से अधिक अन्तर होने पर उत्तर पुस्तिका को तीसरे परीक्षक के पास मूल्यांकन के लिए भेज दिया जाता है।

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