नाटक शिक्षण – अनुकरण (अभिनय) मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। प्रारम्भ से ही बच्चे दूसरों का अनुकरण करते हैं। लकड़ी की डण्डी, बेंत अथवा बाँस आदि को जब बच्चे दोनों पैरों के बीच रखकर उसे घोड़ा मानकर, तिक-तिक करते हैं तो कितने प्यारे लगते हैं। कभी-कभी वे अपने माता-पिता और भाई-बहन आदि की भूमिका भी निभाते हैं। परन्तु यह सब कार्य वे खेल-खेल में करते हैं। विद्यालय में प्रवेश करने के बाद उनकी यह प्रवृत्ति और अधिक क्रियाशील हो जाती है।
उनके पर्यावरण में जो कुछ घटता है उससे वे प्रभावित होते हैं और उसमें से उन्हें जो अच्छा लगता है उसको वे दोहराते हैं। इस तथ्य से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अभिनय की शिक्षा हमें शिशु स्तर से ही प्रारम्भ कर देनी चाहिए। परन्तु लिखित नाटकों का शिक्षण तो तभी प्रारम्भ किया जा सकता है जब बच्चों को भाषा एवं मानव जीवन का सामान्य ज्ञान हो जाए। 7-8 वर्ष की आयु पूरी करते-करते बच्चों को मानव जीवन की सामान्य परिस्थितियों का ज्ञान हो जाता है। वे अब कक्षा 4 में आ जाते हैं। इस स्तर तक आते-आते उन्हें भाषा का भी सामान्य ज्ञान हो जाता है। अतः कक्षा 4 से नाटक शिक्षण प्रारम्भ किया जा सकता है।
किस स्तर पर कैसे नाटक पढ़ाए जाएँ?
शिशु स्तर और प्राथमिक स्तर पर बच्चों को केवल वार्तालाप करने और विभिन्न घटनाओं की साभिनय अभिव्यक्ति के अवसर दिए जाएँ। ये घटनाएँ बच्चों के अपने जीवन की हो और उनसे उनके चरित्र-निर्माण की नींव रखी जा सके, यह ध्यान रखना चाहिए। कक्षा 4 और 5 में घटना प्रधान नाटक पढ़ाए जाने चाहिएँ। इन नाटकों का कथानक बच्चों द्वारा पढ़ी ऐतिहासिक घटनाओं अथवा उनके द्वारा अनुभूत सामाजिक जीवन की किसी घटना पर आधारित होना चाहिए। इसके बाद चरित्र प्रधान नाटकों को पढ़ाना अधिक उपयुक्त होता है। इनके द्वारा किशोर बच्चों के संवेगों को स्थिरता प्रदान करने में सहायता मिलती है। माध्यमिक स्तर पर घटना एवं चरित्रप्रधान नाटकों के साथ-साथ विचार एवं भावप्रधान नाटक भी पढ़ाए जाने चाहिए।



नाटक शिक्षण के लक्ष्य
पाठ्य नाटक के शिक्षण लक्ष्य निश्चित करने के भी चार आधार होते हैं-नाटक शिक्षण के उद्देश्य, पाठ्य नाटक, शिक्षार्थी और प्राप्य समय। उदाहरण के लिए निम्न कक्षाओं में हमारा विशेष ध्यान बच्चों का मनोरंजन करने और उन्हें आचरण एवं वार्तालाप की शिक्षा देने पर होता है जबकि उच्च कक्षाओं में नाटक के शास्त्रीय विश्लेषण और उसकी समीक्षा पर भी ध्यान दिया जाता है।
किसी नाटक विशेष को कक्षा विशेष में पढ़ाने से बच्चों के भाषा एवं सामान्य ज्ञान में जो वृद्धि हो सकती है, उनके भाषायी कौशलों में जो विकास हो सकता है, आचरण में जो परिवर्तन हो सकता है, उनमें जिन रुचियों का विकास हो सकता है और उनमें जिन अभिवृत्तियों का निर्माण हो सकता है, वे ही यथा नाटक शिक्षण के लक्ष्य होंगे।
नाटक शिक्षण की प्रणालियाँ
आजकल नाटक शिक्षण की कई प्रणालियों प्रचलित हैं। उनमें प्रमुख प्रणालियाँ निम्नलिखित हैं
1. अर्थ कथन प्रणाली
इस प्रणाली में शिक्षक नाटक का मौखिक पठन करता है और साथ-साथ उसका अर्थ बताता चलता है। कुछ शिक्षक पठन बच्चों से कराते हैं और अर्थ स्वयं बताते हैं। इस प्रणाली में शिक्षक का विशेष ध्यान कथावस्तु का बोध कराने पर होता है। वह नाटक की भाषा, शैली, पात्रों के वार्तालाप की विशेषताओं आदि अन्य किसी पक्ष पर ध्यान नहीं देता।
भावानुसार पठन करने अथवा बच्चों से पठन कराने का भी उसे अवकाश नहीं रहता। ऐसी स्थिति में न तो बच्चों का मनोरंजन होता है और न ही नाटक शिक्षण के अन्य उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। सफल शिक्षण तो तभी सम्भव है जब शिक्षक और छात्र दोनों क्रियाशील हो और छात्रों को अर्थ समझने के साथ-साथ उसकी अभिव्यक्ति के लिए स्वतन्त्र अवसर दिए जाएँ। इस दृष्टि से यह प्रणाली ठीक नहीं है।
2. प्रयोग प्रणाली
किसी नाटक का उचित प्रभाव तभी पड़ सकता है जब उसे देखा जाए। इसलिए नाटक शिक्षण की सबसे उत्तम प्रणाली यही है कि उसे रंगमंच पर प्रदर्शित किया जाए। इसे ही प्रयोग प्रणाली अथवा रंगमंच अभिनय प्रणाली कहते है। इस प्रणाली की शैक्षिक उपयोगिता तो सबसे अधिक है परन्तु कक्षा शिक्षण में इसका प्रयोग सम्भव नहीं। समय, धन और साधनों के अभाव में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।
3. कक्षाभिनय प्रणाली
यह प्रयोग प्रणाली का दूसरा रूप है। इस प्रणाली में शिक्षक कक्षा के छात्रों को विभिन्न पात्रों की भूमिका दे देता है और छात्र खड़े होकर अपने-अपने संवादों का भावानुसार पठन करते हैं। यह प्रणाली उतनी प्रभावशाली तो नहीं होती जितनी रंगमंच प्रणाली, फिर भी यथा उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध अवश्य होती है। नाटक की शिक्षा के लिए यह प्रणाली उत्तम मानी जाती है, लेकिन केवल इतने से ही काम नहीं चलता। नाटक शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब नाटक के तत्त्वों की व्याख्या की जाए।
4. आदर्श नाट्य पठन प्रणाली
यह प्रणाली भी प्रयोग प्रणाली का ही एक रूप है। इस प्रणाली से शिक्षण करने वाला शिक्षक कक्षा के सम्मुख खड़ा होकर स्वयं ही साभिनय पठन करता है। वह नाटक के संवादों का पठन इस लहजे में करता है कि छात्रों को प्रत्येक पात्र का आभास करा देता है। इस प्रणाली में अर्थ नहीं बताया जाता, केवल मुखाकृति से दया, प्रेम, करुणा, घृणा, क्रोध आदि भाव स्पष्ट किए जाते हैं। नाटक के तत्त्वों की व्याख्या के लिए इस प्रणाली में भी कोई स्थान नहीं होता, इसलिए यह प्रणाली पूर्व माध्यमिक स्तर तक के लिए तो उपयुक्त है परन्तु माध्यमिक स्तर के लिए पूर्ण रूप से उपयुक्त नहीं है। अतः यह प्रणाली भी अपने में अपूर्ण है।
5. समीक्षा प्रणाली
इस प्रणाली में नाटक की कथावस्तु, पात्र, भाषा-शैली एवं कथोपकथन आदि की समीक्षा की जाती है। यह समीक्षा कथन, प्रश्नोत्तर एवं व्याख्या के सहारे की जाती है। समीक्षा के द्वारा नाटक के गुण-दोषों को सामने लाया जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस प्रणाली से शिक्षण करने पर छात्रों में गुण-दोष परखने की शक्ति का विकास होता है लेकिन नाटक शिक्षण का केवल यही उद्देश्य तो नहीं होता, इससे आगे भी कुछ होता है। इस दृष्टि से यह प्रणाली भी अपने मे अपूर्ण है। हाँ, माध्यमिक कक्षाओं में जहाँ नाटकों के तत्त्वों के आधार पर किसी नाटक के गुण-दोष परखे जाते हैं, इस प्रणाली का उपयोग किया जा सकता है।