नरसिंहम समिति 1991 – कुशल बैंकिंग प्रणाली की स्थापना करने हेतु बैंकों के कार्यों, नीतियों, प्रबन्ध व संगठन आदि के बारे में उपयुक्त नीति एवं कार्य प्रक्रिया बनाने हेतु तथा बैंकिंग व्यवस्था में उन्नयन के लिए वर्ष 1996 में बैंकिंग आयोग तथा बाद में गठित की गई विभिन्न समितियों तथा कार्यकारी दलों ने विभिन्न मुद्दों पर अपने सुझाव दिये। परन्तु इन्हें व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सका।
वर्ष 1990 तक बैंकिंग सुविधाओं का सीन विकास होने के बाद से विभिन्न बैंकों के समेकन पर बल दिया जाने लगा । बैंकों हेतु अप्रैल 1990 से मार्च 1992 तक की अवधि हेतु बनायी गयी कार्य योजनाओं में लाभप्रदता, संगठन व नियंत्रण व्यवस्था, ग्राहक सेवा की गुणवत्ता का उन्नयन प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण, ऋण प्रबन्धन, बैंकों के पूँजीगत आधार के सरकारी प्रतिभूतियों पर ब्याज व लाभांश में वृद्धि नये मुद्रा बाजार प्रपत्रों का प्रचलन आदि में सुधार लाने के लिए प्रयास किये गये।

नरसिंहम समिति 1991 की सिफारिशें
अगस्त 1991 में श्री एम. नरसिंमहम की अध्यक्षता में भारत सरकार ने एक समितिकी नियुक्ति की। श्री नरसिमहम भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे। इस समिति की अपनी सिफारिशों को 17 दिसम्बर, 1991 को संसद में पेश किया गया। इस समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं-
- वैधानिक तरल कोषानुपात में पाँच वर्षों में 25% तक चरणबद्ध तरीके से कमी करना।
- नकद कोषानुपात के वर्तमान उच्च स्तर में क्रमशः कमी लाना।
- प्रत्यक्ष ऋण कार्यक्रमों को खत्म करना तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को पुनः तय।
- बाजार में ब्याज दरों का ऐसा विनियमन करना ताकि उभरने वाली बाजार दशाओं को प्रतिबिम्बित किया जा सके।
- बैंक के आर्थिक चिट्ठे में पारदर्शिता लाना।
- चिट्ठे में पूर्ण प्रकटीकरण की व्यवस्था करना।
- एक जैसी लेखांकन रीतियों का प्रयोग करना।
- जोखिम भारित सम्पत्तियों के बारे में कम से कम 4% पूँजी पर्याप्तता अनुरत को मार्च 1993 तक तथा 8% को मार्च 1996 तक प्राप्त करना।
- बैंकिंग प्रणाली का ऐसा पुनर्गठन करना जिसमें 3 या 4 अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप के बड़े बैंक हो, 8 से 10 राष्ट्रीय बैंक हो। इन बैंकों की शाखाएँ देश भर में बैंकिंग व्यवसाय करती हो।

- ऋण वसूली प्रक्रिया में तेजी लाने हेतु विशेष न्यायाधिकरण को स्थापित करना।
- शाखा लाइसेन्सिंग पद्धति का उन्मूलन करना।
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सभी बैंकिंग कारोबार करने की अनुमति देना।
- भारत में विदेशी बैंकों की शाखाओं के विस्तार की नीति को उदार बनाना।
- भारतीय रिजर्व बैंक तथा वित्त मंत्रालय के बैंकिंग प्रभाव के बीच बैंकिंग प्रणाली पर दोहरा नियंत्रण हटाना।
- बैंकों पर पर्यवेक्षीय कार्यों को ऐसे प्राधिकरण को सुपुर्द करना जो अर्द्ध स्वायत्त निकाय के रूप में कार्य करे।
- मर्चेन्ट बैंक, म्युचुअल फण्ड, लीजिंग कम्पनियों, वेंचर कैपिटल कम्पनियों व फैक्टरिंग कम्पनियों जैसी संस्थाओं का पर्यवेक्षण करना।
- बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं के कार्यों के प्रचालनार्थ उचित मानदण्ड तथा मार्गदर्शी सिद्धान तय करना आदि।

नरसिंहम समिति 1991 की सिफारिशों के अनुसार बदलाव
उपरोक्त सिफारिशों के संदर्भ में निम्नलिखित सुधार हुए-
- वैधानिक तरल कोषानुपात को अक्टूबर 1994 में 31.5% किया गया। 13 सितम्बर, 1994 के पश्चात् बढ़ी हुई जमा राशियों पर वह अनुपात 25% किया गया। 25 अक्टूबर, 1997 में इसे वाणिज्यिक बैंकों द्वारा 25% के एकरूप वैधानिक चलनिधि अनुपात रखा जा रहा है।
- 10% वर्द्धमान नकद कोषानुपात खत्म कर दिया गया है। अक्टूबर 1996 में घोषित की गयी ऋण नीति के अधीन जनवरी 1999 से यह 10% रह गया था। 29 अगस्त 1998 से यह 11% है।
- देश में ब्याज दरों को सकारात्मक करने हेतु कुछ सुधारात्मक उपाय किये गये। बैंक दर को सक्रिय किया गया 1 अप्रैल 1999 से अप्रैल 1998 तक इसमें सात बार परिवर्तन हुए। बैंकों की सावधि जमाओं पर ब्याज दरों को अविनियमित कर दिया गया। सावधि जमाराशियों की परिपक्वता अवधि को घटाकर 29 अप्रैल, 1998 से 15 दिन कर दिया गया है।
- बैंकों को पूँजी बाजार से संसाधन जुटाने की व्यवस्था की गयी है। राजकोषीय समायोजन तथा बैंक पूँजी के सुदृढ़ीकरण के मध्य सामंजस्य बनाये रखने हेतु बैंकों को एक निर्धारित अवधि वाले बॉण्डों में विनियोग करने की आज्ञा प्रदान की गयी है। अक्टूबर 1998 की ऋण नीति के अनुसार बैंकों को 31 मार्च, 2000 तक 9% पूँजी पर्याप्तता अनुपात प्राप्त करना होगा।
- बैंकों की लेखांकन तथा रिपोर्ट प्रक्रियाओं को अधिक स्पष्ट करने के लिए वर्ष 1992-93 से आय निर्धारण, सम्पति वर्गीकरण तथा बुरे ऋण हेतु व्यवस्था करने के लिएविवेक सम्मत प्रणाली शुरू की गयी।
- बैंकिंग व वित्तीय संस्थान अधिनियम, 1993 के कारण ऋणों की वसूली के सम्बन्ध में 6 माह से वसूली के मामलों के निपटारे के शीघ्र निर्णयन हेतु ऋण वसूली न्यायाधिकरणों की स्थापना की गयी। मार्च 1998 तक आठ ऋण वसूली न्यायाधिकरण स्थापित हो चुके थे।
- निजी क्षेत्र के बैंकों के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर किया गया। सन् 1996 तक 12 निजी बैंक स्थापित किये जाने की आज्ञा दी चुकी थी तभी जिनमें से 10 बैंक कार्य भी करने लगे थे।
- ग्राहकों की शिकायतों को शीघ्र ही कम व्यय पर निपटाने हेतु वर्ष 1995 से बैंकिंग लोकपाल योजना को लागू किया गया।
- बैंक तथा वित्तीय संस्थाओं में पर्यवेक्षण कार्य को करने हेतु नवम्बर 1994 में वित्तीय पर्यवेक्षण बोर्ड बनाया गया ।

नरसिंहम समिति 1998 की सिफारिशों के उद्देश्य
इस समिति का गठन श्री नरसिंमहम की अध्यक्षता में दिसम्बर 26, 1997 को किया गया तथा इसने अपनी रिपोर्ट वित्तं मंत्री को अप्रैल 22, 1998 को सुपुर्द की। इस समिति को दूसरी नरसिंमहम समिति के नाम से भी जाना जाता है। इस समिति की प्रमुख सिफारिशे निम्नलिखित थीं –
- बैंकिंग प्रणाली में सुदृढ़ता लाना
- जोखिम परिसम्पत्तियों हेतु न्यूनतम पूँजी पर्याप्तता अनुपात 8% से बढ़ाकर 10%करने की सिफारिश की गयी।
- बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं को दिखावटीपन से बचने की सिफारिश की गयी।
- बैंकिंग प्रणालियों व तरीकों को सुधारना –
- परिचालन सम्मत मेन्युअल का संशोधन तथा नियमित आधार पर उसका अद्यतन करना।
- प्रलेखन प्रणाली को आसान करना।
- कम्प्यूटर से लेखा परीक्षण तथा उचित परिशोधक प्रणाली विकसित करना।
- राष्ट्रीयकृत बैंकों में एक और पूर्णकालीन संचालक रखना।
- राष्ट्रीयकृत बैंकों तथा भारतीय स्टेट बैंक में सरकार तथा भारतीय रिजर्व बैंक की न्यूनतम धारिता 33% हो।
- स्वतंत्र ऋण समीक्षा तन्त्र की स्थापना की जाये।
- सूचना तकनीक तथा इलैक्ट्रॉनिक निधि अन्तरण का विकास किया जाये।
- संरचनात्मक मुद्दे
- विकास वित्तीय संस्थाओं तथा बैंकों के मध्य गतिविधियों केन्द्रित होने पर उन्में बदल दिया जाये।
- निजी बैंकों के नये बैंकों का विकास के संदर्भ में उनको लाइसेन्स देने कीबैंकों प्रणाली की समीक्षा हो।
- सरकारी क्षेत्र के बैंकों व वित्तीय संस्थानों के उच्चाधिकारियों की नियुक्तियाँनियुक्ति बोर्ड द्वारा की जाये।
- पारिश्रमिक की दरों को लचीला बनाया जाये।
- भारतीय औद्योगिक विकास बैंक को निगम के रूप में गठित किया जाये।
- विधिक विधायी संरचना
- रिजर्व बैंक अधिनियम तथा बैंकिंग विनियमन अधिनियम में संशोधन हो।
- सरकारी क्षेत्र के बैंकों को स्वायत्तता तथा अधिक शक्तियाँ दी जायें।