जातीय संघर्ष व जातीय संघर्ष के 9 मुख्य कारण

भारत में जातीय संघर्ष सर्वाधिक मिलता है। स्वतंत्र भारत में जाति संघर्षों में बाढ़ सी आई है। जातीय ऊंच-नीच, भेदभाव व संकीर्णता से अनेक तत्वो, विरोधो व संघर्षों को जन्म दिया है।

जातीय संघर्ष

एक जाति की उपजातियों में अथवा विभिन्न जातियों के विरोध तनाव व संघर्ष को जातीय संघर्ष कहा जाता है।

आज एक जाति दूसरी जाति के विरुद्ध मोर्चाबंदी किए है एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र के विरोध में खड़ा है।

पी• एन• हक्सर

Today cost is ranged against caste, region against region.

आज जातिवाद जातिवाद देश की एकता में सबसे अधिक बाधक है। इससे देश का कोई भाग अछूता हुआ मुक्त नहीं। पूरा देश इनकी चपेट में है। उत्तर प्रदेश में हरिजन व सवर्ण में राजस्थान में जाट और राजपूतों में मध्य प्रदेश में ब्राह्मणों, बनियों वा राजपूतों में, बिहार में राजपूतों का भूमिहारों में, गुजरात में पाटीदार व अन्य जातियों में जातीय संघर्ष के कुछ उदाहरण है। इनसे समस्या की गंभीरता व विक्रालता का सरलता से अनुमान हो सकता है।

जातीय संघर्ष के कारण

जाति तनाव व संघर्ष का कोई एक कारण नहीं वरन् इस जटिल समस्या के लिए अनेक कारक उत्तरदाई हैं। राजनीति के चतुर खिलाड़ियों ने सत्ता सुख के लिए आए दिन नए हथकंडे अपनाए हैं जो इस समस्या के विस्तार में आग में घी का काम करते हैं।

जातीय संघर्ष के लिए उत्तरदाई कारकों का विवेचन संक्षेप में निम्नलिखित है-

  1. जातिवाद
  2. जजमानी प्रथा का पतन
  3. आरक्षण
  4. प्रजातंत्र एवं चुनाव
  5. संस्कृतिकरण
  6. आर्थिक स्थिति में सुधार
  7. शिक्षा सुविधाएं
  8. सुधार आंदोलन
  9. जमींदारी का अंत

1. जातिवाद

जातिवाद जातीय संघर्ष का प्रमुख कारण है। जातिवाद एक संकीर्ण भावना है जिसमें अपनी जातियां उपजाति को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है, आधिकारिक सुविधाओं की मांग की जाती है तथा अन्य जातियों के हितों की अनदेखी और उपेक्षा की जाती है।

2. जजमानी प्रथा का पतन

जजमानी प्रथा जाति पर आधारित सहयोगी व्यवस्था थी। से विभिन्न जातियों में प्रकार्यात्मक संबंध पनपे, सेवा संबंध विकसित हुए तथा विभिन्न जातियां एक सूत्र में बंधी। सेवा प्रदान करने वाले परिजन या प्रजा तथा सेवा ग्रहण करने वाले यजमान से कोई सौहार्द्र घनिष्ठता व एकता की भावना सदियों तक पानी पी किंतु आगे चलकर इसमें अनेक दोष आ गए। अंग्रेजी शासन से यह जर्जर हुई और इसका अंत हो गया इसे जातीय संघर्ष को बढ़ावा मिला।

3. आरक्षण

शोषित कमजोर और पिछड़ी जातियों की प्रगति व राज्य की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए संविधान में आरक्षण की सुविधा दी गई थी। एक निश्चित अवधि तक तो आरक्षण का औचित्य था।

अब किसी दल में इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं कि इसकी समय सीमा निर्धारित करें।

4. प्रजातंत्र एवं चुनाव

स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत में प्रजातंत्र की स्थापना की गई। प्रजातंत्र के जाने-माने आधार स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा है। इन सिद्धांतों का जाति प्रथा से कोई तालमेल नहीं वरन दोनों विरोधी हैं। प्रजातंत्र के चुनाव अभिन्न अंग हैं। राजनीति व चुनावों में खुलकर जाति का सहारा लिया गया।

जाति के आधार पर चुनाव के प्रतिनिधि खड़े किए गए जाते हैं और उसी आधार पर वे चुनाव हारते व जीतते हैं। कुछ राजनीतिक दल जैसे बहुजन समाज पार्टी, अकाली दल आदि जाति की राजनीति पर जिंदा है। दूसरे राष्ट्रीय दल भी सत्ता की होड़ में पीछे नहीं रहना चाहते। इससे देश की राजनीति बहुत निम्न स्तर पर उतर आई है।

5. संस्कृतिकरण

संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिंदू जाति या जनजाति अथवा अन्य समूह अपने रीति-रिवाजों, कर्मकांड विचारधारा व जीवनशैली को किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में परिवर्तित करती है।

संस्कृतिकरण द्वारा निम्न हिंदू जाति द्वारा मांस मदिरा का त्याग उच्च जातियों के रीति रिवाज व जीवनशैली को अपनी स्थिति ऊंची करने के उद्देश्य से अपनाती है इसका विरोध उच्च जातियां करती है। इसी से जाति तनाव संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।

6. आर्थिक स्थिति में सुधार

अनुसूचित जातियां जन जातियां व अन्य पिछड़े वर्ग आर्थिक दृष्टि से पंगु व पिछड़ी हुई है। खाना कपड़ा और मकान की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती थी। वह ऊंची जातियों पर इस प्रकार निर्भर थी कि शोषण अन्याय व अत्याचार का विरोध नहीं कर पाती थी। किंतु समय ने करवट ली उनके सामने आर्थिक प्रगति के द्वार खुल गए उनकी दशा सुधार की अनेक योजनाएं अपनाई गई। इससे कमजोर जातियों की आर्थिक कायाकल्प हुई।

7. शिक्षा सुविधाएं

प्राचीन काल से निम्न जातियां शिक्षा अभियान में पल रही थी। वे भाग्यवादी संतोषी व निराशावादी थी। किंतु शिक्षा के प्रचार-प्रसार से उनमें नई चेतना आई वे अपने आर्थिक व स्वाभाविक स्थिति सुधारने की दशा में प्रयत्नशील हुई इससे प्रगति की लालसा बढी।

सर्वोच्च पदों में नियुक्ति से उनमें आत्मविश्वास बढ़ा। सवर्ण इसे सहन नहीं कर पाए। अतः विरोध तनाव व संघर्ष बढ़े। पढ़ा लिखा व्यक्ति जाति की दैवीय उत्पत्ति की खिल्ली उड़ाता है तथा उच्च जातियों के अहं व बड़बोलेपन को सीधी चुनौती देता है।

8. सुधार आंदोलन

जाति प्रथा की अनेक बुराइयों तथा ऊच-नीच, अस्पृश्यता भेदभाव शोषण व अन्याय से संत महात्माओं व प्रबुद्ध भारतीयों ने सुधार आंदोलन किए। इनमें उल्लेखनीय है समाज ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन, दलित सेवा संघ व ईश्वर भक्त आश्रम।

इन्होंने समतावादी समाज की स्थापना की दिशा में प्रयास किए और उच्च जातियों को हृदय परिवर्तन के लिए प्रेरित किया। इन्होंने स्वस्थ जनमत तैयार करने की दिशा में सराहनीय प्रयास किए। निम्न जातियों में नई आशा व जीवन का संचार हुआ उन्हें लगा कि अधिकार मांगने से नहीं वरन संघर्ष से ही मिल सकते हैं।

9. जमीदारी का अंत

जमीदारी प्रथा के समय अधिकांश कृषि योग्य भूमि सवर्णों वा जमीदारों के अधिकार में थी। निम्न जाति के लोग भूमिहीन श्रमिक व बटाईदार थे। जमीदारी उन्मूलन से निम्न जातियां भी भूस्वामी बने। वह बेगार व शोषण का विरोध करने लगे हैं। इससे उच्च जातियों और निम्न जातियों में तनाव व विरोध बढ़ा है।

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