जल प्रदूषण – जनसंख्या वृद्धि और औद्योगिक विस्तार के परिणामस्वरूप पानी की माँग बढ़ी है जिसके कारण जल की गुणवत्ता काफी घट गई है। जब मनुष्य द्वारा जल से इसकी स्वयं शोधन क्षमता से अधिक मात्रा में विजातीय अवांछनीय तत्व डाल दिये जाते हैं तब जल प्रदूषित हो जाता है। यद्यपि जल के प्रदूषक प्राकृतिक स्रोतों भूस्खलन पेड़-पौधो और जीव, जन्तुओं की सड़न और विघटन आदि से भी प्रदूषक उत्पन्न होते हैं लेकिन मानव जन्य स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषक गभीर चिंता के कारण है।

जल प्रदूषण
जल में किसी भी प्रकार के अवांछित पदार्थ (कार्बनिक, अकार्बनिक, विकिरण, जैविक आदि) की उपस्थिति, जिसके कारण जल की विशेषताओं में कमी होकर घातक प्रभाव हो या जल की उपयोगिता में कमी आती है जल प्रदूषण कहलाता है।
जल की रासायनिक, भौतिक व जैविक विशेषताओं में मुख्यतः मानवीय क्रिया कलापों से ह्रास आ जाना ही जल प्रदूषण है।
जल प्रदूषण के स्रोत
जल प्रदूषण के प्रमुख स्रोत तथा उनके दुष्प्रभाव निम्न प्रकार हैं।
1. घरेलू अपमार्जक (Household Detergents)
घरेलू अपमार्जक कपड़े धोने तथा माजने के लिए लगभग सभी घरों में उपयोग में लाये जाते हैं। इन्हें नालों के द्वारा तालाब (ponds). दियों इत्यादि में बहा दिया जाता है, जहाँ पर यह प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।

- घटक – फॉस्फेट, नाइट्रेट तथा अमोनियम के यौगिक और ऐल्किल न सल्फोनेट (alkyl benzene sulphonate = ABS) इत्यादि पदार्थ अपमार्जकों के उपयोग जल में संचयित हो जाते हैं।
- प्रभाव – इनके निम्नलिखित प्रभाव होते हैं –
- ऐल्किल बेन्जिन सल्फोनेट (ABS) झाग के रूप में होता है। यह अनिम्नीकरणीय होने के कारण जलाशयों में एकत्रित हो जाता है और जलाशय में रहने वाले जीवधारियों के लिए बाधा उत्पन्न करता है।
- अकार्बनिक फॉस्फोरस और नाइट्रोजन शैवाल की वृद्धि के लिए प्रमुख और अत्यावश्यक दार्थ है। प्रदूषित जल में इनकी अधिक मात्रा एकत्रित हो जाती है। परिणामस्वरूप, शैवालों की अत्यधिक वृद्धि होकर वह जलाशयों की सतह पर फैल जाते हैं। शैवालों की इस अत्यधिक वृद्धि को जल प्रस्फुटन कहा जाता है। इन शैवालों की मृत्यु और इसके पश्चात् उनके कार्बनिक पदार्थों का उपघटन, ऑक्सीजन की कमी उत्पन्न करता है और जलीय प्राणियों की मृत्यु हो जाती है। यह गतिविधियाँ अधिक समय के लिए होती रहने पर जलाशय में कार्बनिक पदार्थ अधिक और जल कम होता रहता है। यह क्रम सुपोषण कहलाता है।
- नियंत्रण –
- फॉस्फेटों को अवक्षेपित (precipitate) किया जाना चाहिए। चूना, फेरिक क्लोराइड, कैल्शियम ऑक्साइड अथवा हाइड्रॉआक्साइड, फिटकरी (alum) इत्यादि के उपयोग से फॉस्फोरस का अवक्षेपण करके उसे जलाशयों से हटाया जा सकता है। इस काम के लिए जर्कोनियम सबसे अधिक उपयोगी माना जाता है।
- अपमार्जकों में ऐल्किल बेन्जिन सल्फोनेट के स्थान पर लिनीयर ऐल्किल सल्फोनेट (LAS) का प्रयोग किया जाना चाहिए।

2. वाहित मल –
जनसंख्या बढ़ने के कारण जलाशयों में रद्दी, मल-मूत्र, इत्यादि भी अधिक मात्रा में डाले जाने लगे हैं। फलस्वरूप वाहित मल प्रदूषण (sewage pollution) उत्पन्न हो जाता है।
- घटक – वाहित मल में कार्बन पदार्थ अत्यन्त प्रचुर मात्रा में होते हैं। इसके अतिरिक्त कार्बनिक फॉस्फोरस पानी में घुलकर अकार्बनिक फॉस्फोरस बना देता है। नाइट्रोजन के यौगिक भी प्रदूषक होते हैं।
- प्रभाव (Effects) – कार्बनिक पदार्थ जीवाणु और कवकों जैसे अपघटको की वृद्धि कोबढ़ाते हैं। जलाशयों में पुनः ऑक्सीजीनीकरण (reoxygenation) की दर विआक्सीजनीकरण (deoxygenation) की तुलना में कम हो जाती है। इन कार्बनिक पदार्थों से प्रचुर पानी में बी. ओ. डी. B. O.D. = Biological Oxygen Demand अत्यधिक हो जाती है। यह जीवाणुओं द्वारा अपघटन के लिए ऑक्सीजन की आवश्यक (required) मात्रा होती है। स्वच्छ जल में यह अत्यन्त कम होती है।
- नियंत्रण – कार्बनिक पदार्थों की मात्रा को कम करने के लिए सैप्टिक टैंक (septic tank) ऑक्सीकरण तालाब (oxidation pond), फिल्टर स्तर (filter level) इत्यादि प्रयोग में लाये जाते हैं।
ऑक्सीकरण तालाब एक उथला जलाशय होता है, जिसमें वाहितमल का संचयन करते है प्रकाश की उपस्थिति में तथा कार्बनिक पदार्थों की अधिक उपलब्धि के कारण, शैवाल जीवाणुओं के साथ मिलकर अच्छी वृद्धि करते हैं। जीवाणु अपघटन करते हैं और शैवाल उनसे उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड का प्रकाश संश्लेषण में उपयोग करते हैं तथा निकली हुई ऑक्सीजन के कारण जल का वातावरण दूषित नहीं होता। इस विधि द्वारा संक्रामक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और कार्बनिक पदार्थों के अपघटन के पश्चात् केवल नुकसान न देने वाले पदार्थ ही रह जाते हैं।

3. औद्योगिक अपशिष्ट
औद्योगिक संस्थान अपने अपशिष्ट पदार्थ को नालों, नदियों इत्यादि के बहते पानी में छोड़ देते हैं। विभिन्न औद्योगिक संस्थानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ अलग-अलग प्रकार के होते हैं। ये पदार्थ संस्थानों में उपयोग किये जाने वाले कच्चे पदार्थ पर निर्भर होते हैं। कारखानों से बाहर निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ विभिन्न प्रकारों के होने के कारण प्रत्येक प्रकार के कारखाने के लिए अपशिष्टों के निर्गम गुण कानून द्वारा निर्धारित किए जाने चाहिए।
प्रभाव –
जल में पाए जाने वाले धातुओं के प्रभाव निम्न प्रकार से हैं-
- पारा (Mercury) – यह क्लोरीन, कॉस्टिक सोडा के कारखानों से जल में आता है और जलीय प्राणियों जैसे मछलियों से मनुष्य तक पहुंच जाता है। इसके कारण तंत्रिका तंत्र (nervous system) अव्यवस्थित हो जाता है और घातक पागलपन उत्पन्न हो जाता है।
- लेड (Lead) – औद्योगिक कारखानों में अपशिष्ट बाहर निकलने वाले पाइपों से लेड निकल कर जल की सतह पर जमा होता है। यह प्राणियों के ऊतकों में एकत्रित होकर उन्हें पहुँचाता है।
- कॉपर और जिंक – यह मोलस्का वर्ग के प्राणियों में एकत्रित होते हैं। इनका प्रभाव मोलस्का की वृद्धि, शरीर क्रियाएँ, प्रजनन, इत्यादि पर धीरे-धीरे होता रहता है।
- कैडमियम और क्रोमियम – यह समुद्री प्राणियों में एकत्रित होते हैं और उनकी मृत्यु के कारण बन जाते हैं।

जल प्रदूषण नियंत्रण के उपाय
जल प्रदूषण की समस्या अत्यंत भयावह है। जल प्रदूषण पर नियंत्रण करने के लिए कुछ उपाय निम्न हैं-
- जल प्रदूषण का बड़ा कारण औद्योगिक अपशिष्ट है। अतः उद्योगों के बहिःस्राव को जल स्रोतों में छोड़ने से पहले स्रोत पर ही उपचारित किया जाना चाहिए। नवीन उद्योगों के लिए स्थापना के समय ही जल उपचार संयंत्र लगाना अनिवार्य है।
- नगर निकायों को सीवर शोधन संयंत्रों की स्थापना कर घरेलू बहिःस्राव एवं वाहित मल जल को उपचारित करके ही छोड़ा जाए।
- पर्याप्त संख्या में सार्वजनिक शौचालयों की स्थापना के साथ ही उनके रख-रखाव की उचित व्यवस्था की जाये।
- पेयजल स्रोतों की नियमित जांच, सफाई तथा सुरक्षा के उपाय किए जाने चाहिए।
- जलाशयों में आने वाले पोषक तत्वों को नियंत्रित कर शैवालों की वृद्धि को रोका जाना चाहिए।
- जल स्रोतों के निकट तथा जल स्रोतों में गंदगी डालने पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए।
- मृत पशुओं तथा शवों के जल में विसर्जन पर पूर्ण रोक लगानी चाहिए। इसके लिए पर्याप्त ख्या में विद्युत शवदाह ग्रहों की स्थापना की जानी चाहिए।
- जल प्रदूषण नियंत्रण हेतु जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिए।
- जल प्रदूषण नियंत्रण कानूनों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
- जल के शुद्धिकरण में सहायक जलीय जीवों जैसे कछुआ, मगर, मछली, घोंघा आदि का संरक्षण किया जाना चाहिए।