जनतंत्र और शिक्षा – शिक्षा में जनतंत्रीय सिद्धांतों के प्रयोग का श्रेय जॉन डीवी को है। डीवी की पुस्तक जनतंत्र और शिक्षा, प्लेटो की रिपब्लिक और रूसो की एमिल की भांति ही एक उच्च श्रेणी की पुस्तक है। डीवी के विचारों का शिक्षा पर बड़ा प्रभाव पड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति धीरे-धीरे शिक्षा को जनतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित करने लगे।

जनतंत्र और शिक्षा
जनतंत्र की सफलता मुख्य रूप से शिक्षा पर निर्भर करती है। मनुष्य समाज के तुच्छ भेदभाव से ऊपर उठकर समानता और एकता के आधार पर कार्य करता है। क्योंकि अशिक्षित समाज किसी भी तरह जनतंत्र को सफल नहीं बना सकता। जनतंत्र और शिक्षा एक दूसरे से किस प्रकार संबंधित है आइए जानते हैं-
- जनतंत्र में सरकार की समस्त शक्तियां जनता के हाथ में होती हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को यहां अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिए तथा उसे पक्षपात पूर्ण नीति से दूर रहना चाहिए। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक बालक को बिना भेदभाव के अनिवार्य शिक्षा निशुल्क प्रदान की जाए। जिससे वह देश में उचित सरकार का चयन कर सके।
- व्यक्तिक विभिन्नता के आधार पर किसी के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक बालक अलग-अलग बौद्धिक व शारीरिक स्तर का होता है। अतः उसे उसी के अनुसार शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
- जनतंत्र और शिक्षा में ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहिए जिसमें बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास हो जाए अर्थात शिक्षा बाल केंद्रित होनी चाहिए।
- जनतंत्रीय शिक्षा विचारधारा के अंतर्गत प्रौढ़ एवं स्त्री शिक्षा की भी व्यवस्था की जानी चाहिए तथा राष्ट्रीय सायं काल में भी शैक्षिक कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
- पाठ्यक्रम अत्यंत विस्तृत होने के साथ साल लचीला भी होना चाहिए।
- कक्षा शिक्षण तथा शिक्षण पद्धति जनतंत्र पर आधारित होती है। ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है जिसमें बालक स्वयं ही ज्ञान की खोज कर सके।

शिक्षा व्यक्ति को निरंतर उसके विकास पथ की ओर अग्रसर करती है। संविधान ने इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सर्वसाधारण की अनिवार्य तथा निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की भारत में यह प्रक्रिया पूर्ण रूप से एक लंबे अंतराल के बाद 1 अप्रैल 2010 को लागू की गई।
भारत में जनतंत्र और शिक्षा
भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ तथा उसके उपरांत भारत ने संवैधानिक रूप से जनतंत्र को अपनाया। भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। जनतंत्र का मूल मंत्र है योग्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों को प्रतिनिधि बनाकर सरकार में भेजा जाए, किंतु यहां जातीय समीकरण क्षेत्रवाद वंशवाद के आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया जाता है। यहां पर जनतंत्र एक भ्रष्ट प्रणाली के सहारे अपनी समस्त आकांक्षाएं पूरी करना चाहता है।

अतः ऐसे क्रांतिकारी बदलाव एवं युवा वर्ग की पहल की आवश्यकता है जो पूर्ण प्रणाली से भ्रष्टाचार को दूर कर सके क्योंकि भ्रष्टाचार इसकी जड़ों तक समाता जा रहा है, योग्यता व डिग्री आदि यहां पर पैसों में बिकती है। कोई भी संपन्न व्यक्ति डिग्री प्राप्त कर सकता है। चाहे उसमें या योग्यता बिल्कुल भी ना हो तथा शिक्षण संस्थाओं द्वारा भी शिक्षा के स्तर व गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
जो भारत के भावी समय के लिए उचित नहीं है। अतः समस्त नागरिकों का यह कर्तव्य और अधिकार है कि वह इन समस्याओं को दूर करने के लिए सार्थक प्रयास करें।
जनतंत्र और शिक्षा में छात्र व शिक्षक की भूमिका
शिक्षा में केंद्र बिंदु छात्र होता है तथा शिक्षक उसका पथ प्रदर्शक एवं मित्र होता है। शिक्षक व छात्र आपस में अंतः क्रिया करते हैं। शिक्षक छात्रों के प्रति सहानुभूति पूर्ण व्यवहार रखते हैं तथा उनको ऐसा वातावरण प्रदान करते हैं। जिससे उनकी अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण प्रदर्शन हो सके।
जिस प्रकार एक माली पौधा सस्ता है उसकी रक्षा करता है और उसे समुचित खाद, हवा, पानी तथा प्रकाश उपलब्ध कराता है, उसी प्रकार शिक्षक भी छात्रों के हितों व सुरक्षा को ध्यान में रखकर उसे शिक्षित करता है तथा उनके विकास में समुचित अवसर प्रदान करता है।

जनतंत्र में प्रत्येक शिक्षक को अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का पूर्ण ज्ञान होता है। अतः वह बालकों में इस प्रकार की जागरूकता उत्पन्न करना परम आवश्यक समझता है। शिक्षक व छात्रों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त होती है।