जनजातीय विवाह को समझते समय हमारा ध्यान सबसे पहले जनजातीय समाज की और जाता है। इसका कारण यह है कि जनजातियां किसी भी समाज में सभ्यता के विकास की मौलिक प्रतिनिधि होती है तथा उन्हीं की विशेषताओं को समझकर हम सभ्यता के विकास के विभिन्न स्तरों की समझ सकते हैं। जनजाति से हमारा तात्पर्य आदिवासियों के किसी भी ऐसे समूह से होता है, जो एक सामान्य क्षेत्र में रहते हैं, एक सामान्य भाषा बोलते है और एक सामान्य संस्कृति के अनुसार व्यवहार करते हैं।
जंगलों, पहाड़ों, निर्जन प्रदेशों अथवा सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले ये समूह सभ्यता की वर्तमान विशेषताओं को समझने का सबसे अच्छा माध्यम है। इसी कारण डॉ. दुबे ने लिखा है कि “जनजातियों की विभिन्न संस्थाओं का अध्ययन एक जीवित समाज के जीवित अंग के रूप में किया जाना चाहिए, संग्रहालय की नुमाइशी वस्तुओं के रूप में नहीं।”
जनजातीय विवाह
जनजातीय विवाह को समझने से पहले यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जनजातीय संस्कृति के साथ कुछ इस प्रकार के विश्वास जुड़े हुए हैं, जो सभ्य समाजों के व्यक्तियों के लिए कभी-कभी बहुत रोचक और आदिम प्रतीत होते है। जनजातीय विवाह के क्षेत्र में स्त्रियों को कुछ अधिक स्वतन्त्रता मिलने के कारण कुछ व्यक्ति उनकी विवाह संस्था को अत्यधिक मनोरंजक रूप से प्रस्तुत कर देते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि जनजातीय विवाह के विभिन्न स्वरूप और पद्धतियां उनकी अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल हैं।
अनेक दूसरे समाज की तरह जनजातीय विवाह एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था है। इसका उद्देश्य परिवार की स्थापना के द्वारा यौन सम्बन्धों को व्यवस्थित रूप देना तथा बच्चों के पालन-पोषण और समाजीकरण की व्यवस्था करना है। जनजातीय विवाह के द्वारा ही जनजातियों में अपनी संस्कृति के अनुसार नातेदारी सम्बन्धों को प्रभावपूर्ण बनाया जाता है तथा परिवार में सदस्यों के बीच श्रम विभाजन किया जाता है।
इसके बाद भी आर्थिक पिछड़ापन, एक विशेष भौगोलिक पर्यावरण से अनुकूलन करने की आवश्यकता तथा परम्पराओं द्वारा स्त्रियों को तुलनात्मक रूप से अधिक स्वतन्त्रता देना जनजातियों की वे प्रमुख विशेषताएं हैं जिनके कारण उनकी विवाह संस्था का रूप सभ्य कहे जाने वाले समाजों से कुछ भिन्न देखने को मिलता है। इन्ही विशेषताओं के सन्दर्भ में जनजातीय विवाह के विभिन्न प्रकारों तथा जीवन-साथी को प्राप्त करने से सम्बन्धित कुछ विशेष तरीकों को समझा जा सकता है।


जनजातीय विवाह के प्रकार
विश्व की सभी जनजातियों में पति-पत्नी की संख्या, नातेदारी की रीतियों तथा सांस्कृतिक विशेषताओं के आधार पर जनजातीय विवाह के तीन प्रमुख स्वरूप पाए जाते हैं-
- एक-विवाह (Monogamy)
- बहुपत्नी विवाह (Polygamy)
- बहु-पति विवाह (Polyandry)
इसके अतिरिक्त जनजातियों में कुछ विद्वानों ने समूह विवाह का भी उल्लेख किया है, लेकिन व्यावहारिक रूप से अब किसी भी जनजातीय विवाह के इस स्वरूप का प्रचलन देखने को नहीं मिलता। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि एक-विवाह एक सर्वव्यापी नियम है जिसका प्रचलन जातियों में भी सबसे अधिक है।
बहु-पत्नी विवाह तथा बहुपत्नि विवाह कुछ समय पहले तक विश्व की बहुत अधिक जनजातियों में प्रचलित थे लेकिन सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने के कारण विवाह के इन स्वरूपों का प्रचलन लगातार कम होता जा रहा है। जनजातीय विवाह के इन सभी प्रकारों तथा उनसे सम्बन्धित जनजातियों को निम्नांकित विवेचन की सहायता से समझा जा सकता है-
1. एक-विवाह
यह जनजातीय विवाह का वह स्वरूप है जिसमें कोई स्त्री अथवा पुरुष एक जीवन साथी के रहते हुए दूसरे से विवाह नहीं कर सकता। यह विवाह का सर्वोत्तम नियम है जिसका प्रचलन अधिकांश जनजातियों में है। एक विवाह का तात्पर्य केवल एक बार ही विवाह करना नहीं है। यदि व्यक्ति के जीवन साथी की मृत्यु हो जाय अथवा पति-पत्नी में विवाह विच्छेद हो जाये तो कोई भी पक्ष अपना विवाह पुनः कर सकता है। ऐसे विवाह को भी ‘एक विवाह’ ही कहा जाता है।
एक विवाह मनुष्यों की तो क्या, अनेक उन्नत जातियों के पशुओं और पक्षियों की भी विशेषता है।
वेस्टरमार्क
एक विवाह के कारण
विभिन्न जनजातियों में जनजातीय विवाह एक विवाह के प्रति बढ़ती हुई लोकप्रियता को अनेक कारणों के सन्दर्भ में समझा जा सकता है—
- सर्वप्रथम, अधिकांश जनजातियों में स्त्री और पुरुषों का अनुपात लगभग बराबर ही होता है। यदि प्रत्येक स्त्री और पुरुष को एक से अधिक विवाह करने की अनुमति दे दी जाय तो इसका अर्थ यह होगा कि कुछ व्यक्तियों को एक जीवन साथी भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा।
- जनजातीय समाज को संगठित बनाये रखने में भी यह प्रथा अधिक उपयोगी है क्योंकि इससे सभी व्यक्तियों को मानसिक और संवेगात्मक सुरक्षा प्राप्त होती है।
- कुछ जनजातियों में कन्या मूल्य का प्रचलन होने के कारण भी एक विवाह को प्रोत्साहन मिला है। इसका कारण यह है कि सीमित साधनों के कारण अधिकांश व्यक्ति एक से अधिक पलियों की कीमत का भुगतान नहीं कर सकते।
- अनेक जनजातियों में बहुत समय तक वहु-पति और बहु-पत्नी विवाह का प्रचलन बने रहने के कारण उनकी पारिवारिक समस्याओं में इतनी वृद्धि हो गई कि उनका समाधान एक विवाह की प्रथा द्वारा ही सम्भव था।
- सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने के कारण भी जनजातियों में एक विवाह के प्रचलन को प्रोत्साहन मिला है। इन परिस्थितियों के आधार पर बील्स तथा हॉइजर का कथन है कि जिन समाजों मैं कुछ सीमा तक बहु-पत्नी अथवा बहु-पति विवाह का प्रचलन है भी वहां एक विवाह इसलिए अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है कि अपने सीमित साधनों के कारण जनजातियों में एक से अधिक जीवन साथियों का भार उठाना सम्भव नहीं हो पाता।
लाभ तथा हानियां
एक विवाह में पति-पत्नी के अधिकार सबसे अधिक सुरक्षित रहते हैं। ऐसे परिवारों में संघर्ष की सम्भावना कम होने के साथ ही बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा का भी सबसे अच्छा प्रबन्ध सम्भव हो पाता है। एक विवाह की प्रथा ने स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को प्रगतिशील बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त मानसिक स्थिरता के दृष्टिकोण से भी एक-विवाह की प्रथा को ही अधिक उपयोगी समझा जाता है।
इन लाभों के पश्चात् भी जिन जनजातियों में एक विवाह का प्रचलन है, वहां इससे कुछ दोष भी उत्पन्न हो गये हैं। इसके परिणामस्वरूप जनजातियों में भी यौनिक अपराधों की संख्या में वृद्धि हुई है तथा अनेक जनजातियां अपनी प्राकृतिक दशाओं से अनुकूलन करने में कठिनाई अनुभव करती हैं। वास्तविकता यह है कि एक विवाह से सम्बन्धित कोई भी दोष केवल सैद्धान्तिक ही है। व्यावहारिक रूप से यह एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा जनजातीय जीवन को अधिक संगठित बनाया जा सकता है।’


2. बहुपत्नी विवाह
एक समय पर एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करने की प्रथा को ‘बहु-पत्नी विवाह’ कहा जाता है। साधारणतया जिन जनजातियों में बहु पत्नी विवाह का प्रचलन है, वहां जनजाति के कुछ प्रमुख व्यक्ति ही एक से अधिक पलिया रखते है, क्योंकि उनके लिए एक से अधिक पत्नियों को रखना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक समझा जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में नागा, बैगा, गोड, लुशाई, हो, खस तथा अनेक दूसरी जनजातियों में बहुपत्नी विवाह का प्रचलन है।
इन सभी जनजातियों में बहु पत्नी विवाह की प्रथा का रूप समान नहीं है। कुछ जनजातियों में सभी व्यक्तियों को बहु-पत्नी विवाह की अनुमति प्राप्त है जबकि कुछ जनजातियों में यह अधिकार केवल उन्ही व्यक्तियों को मिलता है जिनकी सामाजिक स्थिति काफी ऊंची हो । उदाहरण के लिए, भारत में वैगा जनजाति में केवल कुछ गांवों के व्यक्तियों को ही बहु-पत्नी विवाह का अधिकार मिला हुआ है।
साधारणतया बहुपत्नी विवाह भी दो प्रकार के होते हैं— (क) एकपक्षीय बहु-पत्नी विवाह, (ख) स्वतन्त्र बहु पत्नी विवाह पहली प्रथा में एक पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह तो कर सकता है, लेकिन उसकी सभी पलियां आपस में बहिनें होती है। दूसरी प्रथा वह है जिसमें एक पुरुष की अनेक पत्नियों के बीच किसी प्रकार का सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं होता।
बहुपत्नी विवाह के कारण
ऐसा विश्वास किया जाता है कि विश्व के विभिन्न भागों में जनजातीय विवाह का बहु-पत्नी विवाह का प्रचलन कुछ विशेष परिस्थितियों से प्रभावित है-
- बहु-पत्नी विवाह का सबसे प्रमुख कारण किसी समुदाय में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों के अनुपात में कमी होना है। बील्स और हाइजर ने इस सन्दर्भ में पूर्वी अफ्रीका में रहने वाली जनजाति वगण्डा का उदाहरण दिया है जहां स्त्रियों की संख्या पुरुषों से तीन गुना अधिक होने के कारण वहां बहु-पत्नी विवाह अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। भारत में स्त्री-पुरुषों के अनुपात में इतनी भिन्नता किसी भी जनजाति में नहीं है और इसलिए भारतीय जनजातियों के सन्दर्भ में इस कारण को प्रधानता नहीं दी जा सकती।
- बहु-पत्नी विवाह का कारण कुछ समूहों में एक विशेष प्रकार का भोजन करने के कारण अधिक काम वासना का होना है। यदि ऐसी जनजातियों में स्त्रियों की कमी होती है, तब भी यह अन्य समूहों पर आक्रमण करके वहां से स्त्रियों को छीनने का प्रयत्न करते है। असम के नागाओं में बहु-पत्नी विवाह का सम्भवतः यही सबसे प्रमुख कारण है।
- कुछ समूहों में जीवन अत्यधिक संघर्षपूर्ण होने के कारण एक से अधिक पत्नियों को रखना इसलिए अच्छा समझा जाता है। जिससे कृषि अथवा अन्य आर्थिक कार्यों में उन्हें विश्वसनीय सहयोगी मिल सके। त्रिपुरा और मणिपुर की सुशाई जनजाति में एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करके उनके बीच श्रम विभाजन कर देना इस तथ्य का उदाहरण है।
- पुरुष में नवीनता की इच्छा और एक पत्नी द्वारा सन्तान न होने पर भी दूसरी पत्नी द्वारा इच्छित सन्तान को जन्म देने की इच्छा भी बहु-पत्नी विवाह का कारण है।
- कभी-कभी अधिक पलियों को व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा का भी आधार समझा जाता है। इससे भी बहु-पत्नी प्रथा को प्रोत्साहन मिलता है।
- कुछ जनजातियों का भौगोलिक पर्यावरण इस प्रकार का है कि स्त्रियों में कम आयु में ही यौनिक इच्छा समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों की गर्भ धारण सम्बन्धी निर्योग्यता के कारण भी पुरुष दूसरे विवाह को उपयोगी प्रथा के रूप में देखते हैं।


बहुपत्नी विवाह के कार्य अथवा लाभ
अनेक विद्वान जनजातीय विवाह की इस प्रथा को जैविकीय और आर्थिक क्षेत्र में बहुत – उपयोगी मानते हैं। उनके अनुसार
- बहुपत्नी प्रथा के कारण अच्छे गुणों वाली जनसंख्या में वृद्धि होती है। इसका कारण यह है कि बहुपत्नी विवाह वही व्यक्ति करते हैं, जो उच्च पदों पर आसीन होते हैं तथा जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी होती है। ऐसे व्यक्तियों की सन्ताने भी अपने माता पिता के श्रेष्ठ गुण प्राप्त कर लेती है।
- परिवार में एक से अधिक खियां होने के कारण बच्चों के पालन पोषण में सरलता रहती है।
- इस प्रथा में श्रम विभाजन अथवा परिवार के कार्यों में बंटवारा करना सरल हो जाता है।
- पुरुष को अनेक सहयोगी मिल जाते है जिनकी सहायता से वह प्राकृतिक और आर्थिक संघर्षों का सरलता से सामना कर लेता है।
- बहु-पत्नी विवाह के कारण पुरुष की नवीनता की इच्छा परिवार में ही सन्तुष्ट हो जाती है और इस प्रकार समूह में अनैतिकता नहीं फैल पाती।
बहु-पत्नी विवाह की हानियां
- बहु-पत्नी विवाह का सबसे बड़ा दोष यह है कि इस स्थिति में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति अत्यधिक गिर जाती है। उनको शोषण व भोग-विलास का एकमात्र साधन समझ लिया जाता हैं।
- स्त्रियों को उचित अधिकार न मिलने के कारण उनके असन्तोप तथा पारस्परिक विद्वेष की भी कोई सीमा नहीं रहती है।
- एक और ऐसे विवाहों से परिवार के व्यय बहुत बढ़ जाते हैं और दूसरी ओर प्रत्येक दिन नये पारिवारिक झगड़े एक समस्या बन जाते हैं।
- इन परिवारों में सदस्यों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ती रहती है। कालान्तर में इससे सम्पूर्ण समाज के सामने जनसंख्या वृद्धि की समस्या उत्पन्न हो है।
1. परम्परागत भारतीय सामाजिक व्यवस्था की आधारभूत विशेषताएं | 1. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आधार |
2. भारतीय समाज का क्षेत्रपरक दृष्टिकोण | 1. भारतीय समाज में विविधता में एकता |
3. भारत का जनांकिकीय परिवेश | 1. भारतीय जनसंख्या के लक्षण 2. जनांकिकी 3. राष्ट्रीय जनसंख्या नीति |
5. भारत में विवाह : हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय | 1. विवाह के उद्देश्य व नियम 2. हिन्दू विवाह 3. मुस्लिम विवाह 4. हिंदू व मुस्लिम विवाह में अंतर 5. ईसाई विवाह 6. जनजातीय विवाह |
6. भारत में परिवार तथा परिवर्तन की प्रवृत्तियां | 1. भारतीय संयुक्त परिवार 2. एकाकी परिवार |
7. भारत में नातेदारी | 1. नातेदारी 2. पितृसत्ता 3. मातृसत्ता 4. वंश क्रम 5. वंश समूह |
8. भारत में जाति व्यवस्था: परिप्रेक्ष्य, विशेषताएं एवं परिवर्तन के आयाम | 1. जाति अर्थ परिभाषा लक्षण |
3. बहु-पति विवाह
बहु-पति विवाह वह जनजातीय विवाह है जिसमें एक स्त्री एक साथ अथवा भिन्न-भिन्न अवसरों पर अनेक पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करती है। भारत में कुछ समय पहले तक बहुत-सी जनजातियों में बहु-पति विवाह का प्रचलन था लेकिन सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने के कारण जनजातियों में विवाह की इस प्रथा के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है। इसके पश्चात् भी आज भारत में प्रमुख रूप से खस, टोडा, कोटा, टियान, कुसुम्ब और कम्मल जनजातियों तथा दक्षिण भारत की नैय्यर जनजाति में बहु-पति विवाह का प्रचलन देखने को मिलता है।
बहु-पति विवाह वह सम्बन्ध है जिसमें स्त्री एक समय में एक से अधिक पतियों का चुनाव करती है अथवा जिसके द्वारा अनेक भाई एक स्त्री अथवा एक पत्नी का सम्मिलित रूप से उपयोग करते हैं।
कापड़िया
बहु-पति विवाह की विशेषताएँ
कुछ समय पहले तक मध्य भारत की उरांव जनजाति तथा नागपुर की संथाल जनजाति में भी जनजातीय विवाह की इस प्रथा का प्रचलन था, लेकिन अब सभ्य समाजों के सम्पर्क में आ जाने के कारण ये जनजातियां वशुपति विवाह के पक्ष में नहीं रहीं। बहु-पति विवाह की प्रकृति को इसकी कुछ विशेषताओं के द्वारा सरलतापूर्वक समझा जा सकता है :
- बहु-पति जनजातीय विवाह की प्रथा में एक समय पर ही एक स्त्री के अनेक पति होते हैं।
- अधिकांश जनजातियों में स्त्री के अनेक पति आपस में भाई-भाई होते हैं, लेकिन ऐसा होना सदैव आवश्यक नहीं होता।
- जो परिवार मातृसत्तात्मक होते हैं (अर्थात् जिनमें परिवार की मुखिया कोई स्त्री होती है), उनमें साधारणतया स्त्री को ही अपने अनेक पतियों का चुनाव करने की स्वतन्त्रता होती है। इसके विपरीत पितृसत्तात्मक परिवारों में अनेक पुरुष मिलकर एक स्त्री से विवाह कर लेते हैं।
- साधारणतया स्त्री के अनेक पति यदि आपस में भाई-भाई होते हैं तो स्त्री अपने पतियों के घर रहती है, लेकिन स्त्री के पति अलग-अलग परिवारों के सदस्य हों तो उन्हें पत्नी की इच्छानुसार उसके घर आकर रहना होता है।
- भ्रातृ बहु-पति विवाह में यद्यपि सभी भाइयों का पत्नी पर अधिकार होता है, लेकिन सबसे अधिक अधिकार भाई को मिले होते हैं।
- ऐसे विवाहों में बच्चे के पितृत्व का निर्धारण जैविकीय आधार पर नहीं वल्कि सामाजिक रूप से होता है। इसका तात्पर्य है कि स्त्री के अनेक पतियों में से जो भी पति एक विशेष संस्कार को पूरा करता है, उसी को परिवार में जन्म लेने वाले नये बच्चे का पिता मान लिया जाता है। इसके फलस्वरूप बच्चे पर मां को सबसे अधिक अधिकार प्राप्त होता है।
बहु पति विवाह के प्रकार
बहु-पति विवाह का बहु पति विवाह प्रमुख रूप से दो प्रकार का होता है- भ्रातृ बहु-पति विवाह तथा अभ्रातृ बहु-पति विवाह। इन दोनों की प्रकृति को भारत की कुछ जनजातियों के उदाहरणों से स्पष्ट करने से बहुपतिविवाह की प्रकृति को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है: भ्रातृ बहु-पति विवाह वह है जिसमें एक स्त्री के अनेक पति आपस में भाई-भाई होते हैं।
डॉ. कापड़िया का कथन है कि आज भारत में भ्रातृ बहु-पति विवाह का स्पष्ट रूप केवल खस और टोडा जनजातियों बाद उस युवक का यह अधिकार हो जाता है वह घेरे में नृत्य करने वाली किसी भी युवती का विवाह के लिए वरण कर ले। स्त्री स्वयं भी ऐसे युवक को पाकर गर्व का अनुभव करती है।
3. परिवीक्षा विवाह
जनजातीय विवाह की यह प्रथा असम की कुकी जनजातियों में अधिक प्रचलित है। इस पद्धति के अनुसार कन्या से विवाह करने के इच्छुक युवक को कन्या के माता-पिता के घर आकर कुछ दिन रहना पड़ता है। इस अवधि में उसे लड़की के साथ एकान्त में रहने का अवसर दिया जाता है जिससे वह उसके स्वभाव और गुणों में परिचित हो जाये।
यद्यपि इस अवधि में दोनों से यौन सम्बन्धों को स्थापित करने की आशा नहीं की जाती लेकिन साथ ही इसे अधिक बुरा भी नहीं समझा जाता। यदि दोनों एक-दूसरे के स्वभाव को अपने अनुकूल समझते हैं, तब उनका विवाह हो जाता है, अन्यथा वे एक-दूसरे से पृथक् हो जाते हैं, लेकिन पृथक् होने की स्थिति में युवक को कन्या के माता-पिता को कुछ हर्जाना देना आवश्यक होता है।


4. हठ विवाह
जनजातीय विवाह की यह प्रणाली एकपक्षीय प्रेम की भावना से सम्बन्धित है, जबकि किसी युवक के न चाहने पर भी कोई स्त्री उससे विवाह करना चाहती है। इस प्रणाली के अन्तर्गत विवाह की इच्छुक स्त्री युवक के घर में हठपूर्वक घुसकर बैठ जाती है। युवक को माता-पिता उसे निकालने के सभी सम्भव प्रयत्न करते हैं। इस पर भी यदि स्त्री उनके घर से न निकले, तब उस युवक का स्त्री से विवाह कर दिया जाता है।
जनजातीय विवाह की यह पद्धति हो, बिरहोर, ओरांव, कमार, संथाल तथा कुछ संशोधित रूप से थारू जनजाति में भी प्रचलित है। कमार इसे ‘पैटू’ विवाह कहते हैं। ओरांव और संथालों में इस पद्धति को ‘निरबोलोक’ कहा जाता है, जबकि हो, बिरहोर और थारू जनजातियों में ऐसे विवाह को ‘अनादर विवाह’ की संज्ञा दी जाती है। संथालों में ऐसी स्त्री को घर से भगाने के लिए आंख में लाल मिर्च तक डाल दी जाती है।
स्त्री यदि ऐसी यातना को भी सहन करके बैठी रहे तब युवक को उससे विवाह करना आवश्यक हो जाता है। थारूओं में यदि किसी प्रकार भी स्त्री घर से न निकले, तब या तो उससे युवक को विवाह करना पड़ता है अथवा उसे किसी अन्य युवक से विवाह करने के लिए कुछ धन देना होता है।
5. सेवा विवाह
जनजातीय विवाह की यह पद्धति उन्हीं जनजातियों में प्रचलित है जहां विवाह के लिए युवक को कन्या के माता-पिता के लिए कन्या मूल्य चुकाना पड़ता है। अनेक युवक कन्या मूल्य चुकाने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए इसका दूसरा विकल्प यह है कि वह युवक अपने भावी श्वसुर के यहां तब तक सेवा कार्य करे जब तक इस सेवा का मूल्य कन्या मूल्य के बराबर न हो जाय। यह पद्धति गोंड, बिरहोर, बैगा और खस जनजातियों में पायी जाती है।
बिरहोर जनजाति में कन्या का पिता अपने भावी दामाद को कन्या- मूल्य की राशि उधार दे देता है जिसे युवक अनेक किस्तों में चुकाता है। जब तक इस पूरी राशि का भुगतान नहीं हो जाता, युवक को अपने श्वसुर के घर पर रहकर उसकी सेवा करते रहना आवश्यक है। खस जनजाति में युवक को अपने भावी श्वसुर को खेती में कुछ समय तक सहायता देनी होती है। कुछ विद्वानों ने जनजातीय विवाह की एक अन्य पद्धति क्रय- विवाह का भी उल्लेख किया है। वास्तव में, यह पद्धति कोई भिन्न पद्धति न होकर सेवा-विवाह का ही संशोधित रूप है।
6. पलायन विवाह
जनजातीय विवाह का भारत की जनजातियों में काफी अधिक प्रचलन रहा है। यदि युवक और युवती परस्पर विवाह करने के लिए पूर्णतया तैयार हों, लेकिन उनके माता-पिता अथवा जनजातीय नियमो के कारण उन्हें इस विवाह की अनुमति न मिल पा रही हो, तब वे अपने गांव से दूर किसी बस्ती अथ जंगल में पलायन कर जाते हैं।
इस स्थान पर वे तब तक रहते हैं जब तक उनके माता-पिता इस विवाह के लिए तैयार न हो जाये अथवा उनके एक सन्तान न हो जाये। सन्तान का जन्म हो जाने के बाद उन्हें घर लौटने पर भले ही कुछ यातनाओं का सामना करना पड़े, लेकिन अन्त में ऐसे विवाहों को मान्यता मिल जाती है।
7. विनिमय विवाह
जनजातीय विवाह का एक मितव्ययी तरीका है जिसमें पत्नी को प्राप्त करने के लिए पुरुष अपनी एक बहिन का विवाह पत्नी के घर के किसी पुरुष से कर देता है। इस प्रकार इसे ‘दो परिवारों के बीच होने वाला विनिमय विवाह’ कहा जा सकता है। इसका तात्पर्य है कि ऐसे विवाहों में दो परिवारों के युवक एक-दूसरे के बहनोई और साले दोनों ही हो जाते हैं।
सम्भवतः ऐसे विवाहों का कारण भी पत्नी-मूल्य का भुगतान करने की कठिनाई का समाधान करना है। इस पद्धति की सबसे बड़ी कठिनाई दाह है कि ऐसे दो परिवार कठिनता से ही मिल पाते हैं जो एक-दूसरे को इस सम्बन्ध के लिए योग्य समझते हो। इसके उपरान्त भी भारतीय जनजातियों में इस पद्धति का प्रयोग प्रचुरता के साथ होता है।
आज बाहरी समूहों से सम्पर्क, जनजातियों में शिक्षा का प्रसार, नगरीय उद्योगों में सहभागिता, लोकतान्त्रिक नेतृत्व का विकास, सांस्कृतिक परिवर्तन तथा बढ़ती हुई सामाजिक जागरूकता वे दशाएं हैं। जिनके कारण जनजातीय विवाह की प्रकृति में भी अनेक परिवर्तन होने लगे हैं। जनजातियों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रभाव बढ़ने से विवाह के क्षेत्र में पुरुषों के अधिकारों में वृद्धि हुई है तथा बहुपति विवाह की प्रया तेजी से समाप्त होती जा रही है।
बहुपत्नी विवाह के प्रति भी जनजातियों में उदासीनता बढ़ रही है। जनजातीय विवाह के पूर्व तथा विवाह के बाद स्त्रियों की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित किया जाने लगा है। जनजातीय विवाहों में भी बाहरी समूहों की तरह प्रदर्शनवाद और अपव्यय की प्रवृत्ति बढ़ रही है। अब अनेक जनजातियों में दहेज के प्रचलन से सम्बन्धित समस्याएं भी बढ़ने लगी हैं जिसके फलस्वरूप उनमें घरेलू हिंसा तथा पारिवारिक विघटन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।