साइमन कमीशन के सुझाव के अनुसार बढ़ती समस्याओं को सुलझाने के लिए लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसका उद्घाटन 12 नवंबर 1930 ईस्वी को लंदन में किया गया। सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की। इस सम्मेलन में कुल 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें 3 प्रतिनिधि ग्रेट ब्रिटेन से, 16 भारतीय देसी रियासतों से तथा शेष ब्रिटिश भारत के थे। ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि के रूप में सर तेज बहादुर सप्रू, श्रीनिवास शास्त्री, डाक्टर जयकर, चिंतामणि तथा डॉ अम्बेडकर आदि थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस सम्मेलन में अपना कोई भी प्रतिनिधि नहीं भेजा था।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन के सुझाव
प्रथम गोलमेज सम्मेलन के निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए-
- संघ शासन- भारत के नवीन विधान का निर्माण शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश प्रांत व देशी रियासतें इस संघ शासन की इकाई का रूप धारण करेंगी।
- संरक्षण सहित उत्तरदाई शासन- नवीन व्यवस्था के अंतर्गत क्रांति और केंद्रीय क्षेत्र में उत्तरदाई शासन की स्थापना की जाएगी, किंतु केंद्रीय क्षेत्र में सुरक्षा और वैधानिक विभाग भारत के गवर्नर जनरल के अधीन होंगे।
- अंतरित काल में रक्षात्मक विधान- अंतरित काल की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए रक्षात्मक विधान रखे जाएंगे।


प्रमुख राजनीतिक बंदियों की मुक्ति
ब्रिटिश शासन के द्वारा अब तक इस तथ्य को समझ लिया गया था कि राष्ट्रीय कांग्रेस के सहयोग बिना भारत की कोई भी समस्या हल नहीं हो सकती। इसलिए समझौते का मार्ग प्रशस्त करने हेतु वायसराय ने महात्मा गांधी और कांग्रेस कार्य समिति के 19 सदस्यों को मुक्त कर दिया।
गांधी-इरविन समझौता (पैक्ट)
प्रथम गोलमेज सम्मेलन से लौटने के पश्चात सर तेज बहादुर सप्रू और डॉक्टर जयकर ने अपनी मध्यस्थता के प्रयास फिर से प्रारंभ करती है। इन मध्यस्थता प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप 17 फरवरी को महात्मा गांधी और लॉर्ड इरविन की बातचीत प्रारंभ हुई, जो 5 मार्च तक चलती रहे। गांधी-इरविन बातचीत के परिणाम स्वरूप 5 मार्च 1931 ईस्वी को यह समझौता हुआ जो इतिहास में गांधी-इरविन समझौते के नाम से विख्यात है। इस समझौते के अनुसार सरकार ने निम्न आश्वासन दिए-
- उन्हें हिंसात्मक कार्य करने वाले अपराधियों को जिन पर अपराध सिद्ध हो चुका है, छोड़कर अन्य राजनीतिक बंदियों को मुक्त कर दिया जाएगा।
- वह सभी अध्यादेश और चालू मुकदमों को वापस ले लेगी।
- आंदोलनों के दौरान जब्त संपत्ति उनके स्वामियों को वापस कर देगी।
- सरकार ऐसे लोगों को बंदी न बनाएगी। जो शराब, अफीम तथा विदेशी वस्त्र की दुकानों पर शांतिपूर्ण पिकेटिंग करेंगे।
- वह समुद्र तट से एक निश्चित दूरी में रहने वाले लोगों को बिना किसी करके नमक इकट्ठा करने तथा बनाने देंगी।
- जो जमानते और जुर्माने अभी वसूल नहीं हुए हैं, उन्हें वसूल नहीं किया जाएगा और अतिरिक्त पुलिस वापस ले ली जाएगी।
- जिन सरकारी नौकरों ने आंदोलन के समय नौकरी से त्यागपत्र दे दिए थे, उन्हें नौकरी में वापस लेने में सरकार उदार-नीति बनाएगी।


कांग्रेस की ओर से महात्मा गांधी ने निम्न बातें स्वीकार की-
- कांग्रेस अपने सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर देगी।
- कांग्रेस अपनी इस मांग को त्याग देगी कि आंदोलन के दौरान पुलिस के द्वारा जो जबरदस्ती की गई उनकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।
- कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
- कांग्रेस ब्रिटिश माल के बहिष्कार का राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग नहीं करेगी।
- कांग्रेस द्वारा यह समझौता न माने जाने पर सरकार शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक कार्यवाही करने हेतु स्वतंत्र होगी।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन
7 सितंबर 1931 ईस्वी को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ हो गया। महात्मा गांधी जी इसमें 12 सितंबर को सम्मिलित हुए। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की परिस्थितियां भारतीय समस्याओं के हल निकालने के अनुकूल थी। महात्मा गांधी की उपस्थिति भी इस सम्मेलन को सफल नहीं बना सकी। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1 दिसंबर 1931 ईस्वी को सफलता के कारण समाप्त हो गया। ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन में ऐसी चालाकी अपनाई की आवश्यक और मूल मुद्दे पीछे छूट गए।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन
गोलमेज परिषद का तृतीय और अंतिम अधिवेशन नवंबर 1932 ईस्वी में प्रारंभ हुआ। इस सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा इंग्लैंड के मजदूर दल द्वारा भाग न लिए जाने के कारण यह महत्वहीन रहा।


पूना पैक्ट
1928 ईस्वी की नेहरू रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि शरारत भरी सांप्रदायिक चुनाव पद्धति को समाप्त कर दिया जाए तथा उनके स्थान पर अल्पसंख्यकों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसे अमान्य कर दिया।
1932 ईस्वी में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक दंगों को समाप्त करने के लिए एक निर्णय दिया। जिससे हरजनों को सवर्णों में पृथक रखने के उद्देश्य से अलग निर्वाचन का अधिकार प्रदान कर दिया गया। महात्मा गांधी ने इस निर्णय के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया। गांधीजी के जीवन की रक्षा के लिए हिंदू तथा हरिजन नेता पुणे में एकत्रित हुए। यह समझौता हुआ कि हरिजनों के लिए प्रांतीय तथा केंद्रीय विधान सभाओं में कुछ स्थान सुरक्षित रखे जाएंगे। इस समझौते को पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है।
1935 ईसवी का एक्ट
देश की राजनीतिक अवस्था को सुधारने के लिए 1935 ईस्वी में एक एक्ट पास किया गया। इसमें प्रांतो एवं पूर्ण उत्तरदाई और केंद्र में आंशिक रूप से उत्तरदाई शासन की व्यवस्था का प्रावधान था। इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि इसके द्वारा प्रांतों के गवर्नरो और वायसराय को असीमित शक्ति प्रदान कर दी गई थी।