हिंदी कहानी के विकास में जयशंकर प्रसाद का विशेष योगदान रहा है। उनकी कहानियों में प्रेम का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। गुण्डा कहानी में औदात्य प्रेम के ही दर्शन होते हैं। यह कहानी तीन खंडों में विभक्त है। कहानी की कालावधी लगभग 30 वर्ष में समाई हुई है। कहानी कभी वर्तमान की घटनाओं से आगे बढ़ती है तो कभी भूतकाल की घटनाओं से आगे बढ़ती है।
गुण्डा कहानी
गुण्डा कहानी का नायक नन्हकू सिंह एक प्रतिष्ठित जमीदार का बेटा है। जो एक बार किसी सवर्ण युवती पन्ना को नवाब के बिगड़े हुए हाथी से बचाता है और शीघ्र ही उस प्रेम करने लग जाता है। परंतु काशी का राजा बलवंत सिंह उस पन्ना को अपने राजमहल ले गया और एक दिन पन्ना उसके पुत्र की माता भी बनी। शीघ्र ही राजा बलवंत सिंह का देहांत हो गया।


प्रतिशोध की आग में जलता नन्हकू सिंह राजा बलवंत सिंह की हत्या ना करके अपना प्रण भी पूरा ना कर सका। धीरे-धीरे उसने अपने पिता की संपत्ति को लुटाना आरंभ कर दिया। इस प्रकार समय बीत पर बीते वह 50 वर्ष का हो जाता है। कहानी के आरंभ में नन्हकू सिंह की अवस्था 50 वर्ष ही दर्शाई गई है। उपर्युक्त घटनाओं का चित्रण फ्लैशबैक पद्धति पर किया गया है।
कहानीकार ने 50 वर्षीय नन्हकू सिंह के शारीरिक गठन व उसकी वेशभूषा के संदर्भ में लिखा है कि वह गर्मी बरसात, सर्दी सभी मौसम में नंगे शरीर घूमता था।
उसकी मूछे बिच्छू के डंक की तरह चढ़ी रहती थी। सावला रंग था। जो सांप की तरह चमकीला और चिकना था। वही नगर का गुंडा था। परंतु उसके अपने कुछ सिद्धांत भी थे। वहां गठीला शरीर का स्वामी था। अतः नगर की वेश्या मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती परंतु आप कभी भी कोठे पर नहीं चढ़ा। नीचे तमोली की दुकान पर ही बैठ कर वेश्याओं का गीत सुनता था। जुए में जीत के रुपए उन पर लुटाता था।
एक बार ठाकुर बोधी सिंह से नन्हकू सिंह से कुछ कहा सुनी हो गई। 5 वर्ष पश्चात जब मोदी सिंह अपने पुत्र की बारात लेकर जा रहा था तब नन्हकू सिंह की कुछ कहासुनी हो गई। जिससे बोधी सिंह यह कहकर वापस लौट गया कि एक बारात में दो संधियों का क्या काम? अंत में नन्हा को उसके पुत्र की बारात को आगे ससुराल तक ले गया तथा विवाह उपरांत उसके पुत्र व बारात को उसी स्थान पर लाकर छोड़ दिया व अपने ठिकाने पर चला गया।


एक दिन नन्हकू सिंह तमोली की दुकान पर जाकर बैठा और मलूकी से कहा कि वेश्या दुलारी से कह दे कि विलमि विदेश रहे गीत सुनाए। अभी दुलारी नेगी शुरू भी नहीं किया था कि नगर का प्रसिद्ध दुष्ट व्यक्ति मौलवी अलाउद्दीन कुबरा वहां पहुंच जाता है। वेश्या दुलारी को रेजीडेंट साहब की कोठी पर मुजरा करने के लिए बुलाता है। प्रत्युत्तर में नन्हकू दुलारी को गाना शुरू करने के लिए कहता है।
कुबरा मौलवी द्वारा यह कहने पर “कौन है यह पाजी!” नन्हकू सिंह उस एक जोरदार बनारसी झापड़ मारता है तथा गीत सुनने के पश्चात ही वहां से टहलता हुआ निकल जाता है।
शाम होने पर राजमाता पन्ना वेश्या दुलारी को शिवालय में बुलाती है। वहां दुलारी कुबरा मौलवी वानन हकू सिंह के बारे में बताती है। राजमाता के पूछे जाने पर कि नन्हकू सिंह कौन है? दुलारी बताती है कि नन्हकू सिंह वही आदमी ही है। जिसने युवावस्था में बिगड़े हाथी से हमारी रक्षा की थी। राजा बलवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात रानी पन्ना की अपनी संपत्ति शपथ ली से नहीं बनती थी। फलतः वह अपना अधिकांश समय राजमंदिर में गुजारती थी।
दुलारी बातों-बातों में उसे बताती है कि नन्हकू सिंह वास्तव में गुंडा नहीं है क्योंकि वह विधवाओं की सहायता करता है। गरीब लड़कियों की शादी में धन देता है, शोषित लोगों की रक्षा करता है। आप गुण्डा कहानी का सारांश पढ़ रहे हैं।


रानी बातों बातों में दुलारी से यह भी जान लेती है कि नन्हकू सिंह ने एक बार भी किसी वेश्या के कोठे पर पैर नहीं रखा। इस समय काशीनगर की स्थिति खराब होती जा रही थी। राजमाता पन्ना के पुत्र राजा खेत सिंह की अंग्रेजों के साथ चल रही थी। अंग्रेज रेजिडेंट मार्क हमने राजा जयसिंह के पास इस आशय से चिट्ठी भेजी कि नगर के गुंडों डाकुओं आदि का भय व्याप्त है। अतः उन्हें पकड़ा जाए दूसरी ओर हेस्टिंग के भी काफी आने का समाचार उसमें लिखा हुआ था। कोतवाल हिम्मत सिंह ने नगर के प्रमुख गुंडों जो कि नन्हकू सिंह के ही मित्र थे। उन्हें पकड़कर पृथ्वी सिंह की हवेली में बंद कर दिया।
ऐसी परिस्थितियों में एक दिन नन्हकू सिंह गंगा नदी के किनारे अपने साथियों के साथ दूधिया छान रहे थे। कि उन्हें दुलारी को वहां जाने के लिए बुला लिया वहां दुलारी राजमाता दुलारी के गाने से संतुष्ट ना हुआ। रात को दुलारी नन्हकू के पास जाती है। परंतु नन्हकू सिंह उसे अपने से दूर कर देता है। दुलारी से राजमाता पन्नावा राजा खेत सिंह को अंग्रेजों द्वारा बंदी बनाए जाने का समाचार सुनकर नन्हकू सिंह अधीर हो उठता है। आप गुण्डा कहानी का सारांश पढ़ रहे हैं।


16 अगस्त 1981 को राजा जयसिंह को लेफ्टिनेंट इस डॉक्टर ने अपने पहले में पहुंचा। वहां पर राजा चेत सिंह राजमाता पन्ना व उसका विश्वसनीय मनिहार सिंह इस विषम परिस्थिति से बचने का उपाय सोच रहे थे। नन्हकू सिंह ने पहले महारानी पन्ना को ढोंगी पर बैठने का आग्रह किया। शिवालय का मुख्य फाटक कोबरा मालवीय व अन्य सैनिकों द्वारा तोड़ा जा रहा था। नन्हकू सिंह ने आग्रह पूर्वक राजमाता पन्ना को ढोंगी पर बिठा देता है। तभी लेफ्टिनेंट अपने सिपाहियों को गोली चलाने का आदेश देता है।
नन्हकू सिंह ने राजा चेत सिंह को पकड़ने वाले चेतराम की भुजा काट दी। इसके पश्चात उसने इस कास्टर व उसके साथियों को धराशाई कर दिया। फिर उसने कोबरा मौलवी को मार गिराया क्षण प्रतिक्षण सैनिक की संख्या बढ़ती जा रही थी। स्थिति को भाप कर घायल नन्हकू सिंह ने राजा जयसिंह को जल्दी से दूंगी, पर बैठा कर वहां से भाग जाने के लिए कहा। जब राजा चेत सिंह खिड़की से उतर रहे थे। तो उन्होंने देखा कि लगभग 20 अंग्रेज सैनिक से गिराना ना कुछ चट्टान के समान अधिक होकर उसके उनका सामना कर रहा था। अंग्रेज सैनिकों के प्रयासों से नन्हकू सिंह के अंग-अंग कट कर गिर रहे थे लेकिन वह नगर का गुण्डा था।


जयशंकर प्रसाद जीवन परिचय
30 जनवरी 1889
वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
15 नवंबर 1937
बाबू देवीप्रसाद
जयशंकर प्रसाद को ‘कामायनी’ पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे। जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं।
नाटक लेखन में भारतेन्दु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। 48 वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की।
प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान् इनके संस्कृत के अध्यापक थे। इनके गुरुओं में ‘रसमय सिद्ध’ की भी चर्चा की जाती है।
घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी। कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने ‘कलाधर’ के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर ‘रसमय सिद्ध’ को दिखाया था। उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे नागरी प्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष भी थे। मात्र 48 वर्ष की उम्र में क्षय रोग से 14 नवम्बर 1937 को प्रातःकाल उनका देहान्त काशी में हुआ।
- प्रेम पथिक
- कानन कुसुम
- कामायनी
कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन् 1912 ई. में ‘इंदु’ में उनकी पहली कहानी ‘ग्राम’ प्रकाशित हुई। उन्होंने कुल 72 कहानियाँ लिखी हैं।
प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे हैं।
- कंकाल
- तितली
- इरावती (अपूर्ण)
इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का मार्मिक चित्रण किया है, जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता है।
जयशंकर प्रसाद ने कुल 13 नाटकों की रचना की। जिनमें 8 ऐतिहासिक, तीन पौराणिक तथा दो भावात्मक नाटक थे।
- उर्वशी
- बभ्रुवाहन
- कामना
- एक घूंट