कोठारी आयोग – शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के लिए हमारे देश में जब भी किसी कमेटी अथवा आयोग का गठन किया जाता है तो इसका अभिप्राय यह ही लगाया जाता है कि इस क्षेत्र की लचर व्यवस्था के पुनर्गठन तथा मूल्यांकन के लिए ही इस प्रक्रिया को प्रारंभ किया गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के क्षेत्र में नए समाज का उदय करने का दायित्व हमारे शिक्षकों व शिक्षा पद्धतियों पर आ गया परंतु शिक्षकों की अपनी समस्याएं बहुत ही तथा शिक्षा पद्धतियों में भी अनेक दोष उत्पन्न होने लगे थे।
इसी कारण शिक्षकों, छात्रों, प्रशासन, पाठ्यक्रम व शिक्षा पद्धतियों में यदा-कदा टकराव उत्पन्न हो जाता था। इस परिवर्तन के समय में यह आवश्यकता अनुभव की गई कि सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हो तथा शिक्षा का पुनर्मूल्यांकन हो। इसी दृष्टिकोण को सर्वोपरि रखते हुए प्रसिद्ध विद्वान दौलत सिंह कोठारी के नेतृत्व में कोठारी आयोग का गठन किया गया। इस आयोग में देश व विदेश के 17 सदस्य थे तथा 12 कार्य समूह व अध्ययन दल को नियुक्त करके लगभग 1000 व्यक्तियों से साक्षात्कार किया गया तथा 1966 में इस आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।

कोठारी आयोग
स्वतंत्र होते ही अपने देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार के प्रयास शुरू किए गए, इस संदर्भ में भारत सरकार का पहला कदम था। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति इस आयोग में विश्वविद्यालय शिक्षा के प्रशासन संगठन और उसके स्तर को ऊंचा उठाने संबंधी ठोस सुझाव दिए। कुछ प्रांतीय सरकारों ने उसके सुझावों के अनुसार माध्यमिक शिक्षा में परिवर्तन करना भी शुरू किया।
परंतु सबसे वह सब हाथ नहीं लगा जिसे हम प्राप्त करना चाहते थे। देशभर के लिए समान शिक्षा नीति का निर्माण करने के उद्देश्य से 14 जुलाई 1964 को डॉ• डी• एस• कोठारी तत्कालीन अध्यक्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अध्यक्षता में 17 सदस्यीय राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया गया। इस आयोग को इसके अध्यक्ष के नाम पर कोठारी आयोग कहते हैं।
कोठारी आयोग का पांच सूत्री कार्यक्रम
इस आयोग ने शिक्षा व उत्पादकता में सामंजस्य स्थापित करने के लिए विज्ञान शिक्षा, कार्य, अनुभव, तकनीकी शिक्षा व व्यवसायिकता पर बल दिया। राष्ट्र विकास के लिए भाषा नीति का अनुसरण करना सहायक माना गया। इस आयोग ने राष्ट्रीय चेतना के लिए साहित्य, भाषा, धर्म, इतिहास, स्थापत्य, शिल्प, चित्रकला, संगीत, नृत्य व नाटकों को एक माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया। सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक मूल्यों तथा धर्म की शिक्षा के विकास पर भी आयोग ने बल दिया। इस आयोग के अनुसार
- शिक्षा को उत्पाद के साथ जोड़ना।
- शैक्षणिक कार्यक्रम के द्वारा सामाजिक व राष्ट्रीय एकता पर बल देना।
- शिक्षा के माध्यम से प्रजातंत्र का विकास करना।
- सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना।
- शिक्षण मनोवृति व मूल्यों के द्वारा कौशल का विकास करते हुए समाज का आधुनिकीकरण करना।
भारत देश में इस बात की नितांत आवश्यकता है कि यहां सभी धर्मों को सहिष्णु रूप से अध्ययन कराया जाए जिससे यहां के नागरिक एक दूसरे को अच्छी तरह से समझ लें।


कोठारी आयोग की विशेषताएं
- इस आयोग ने हिंदी की उपेक्षा की है तथा अंग्रेजी का प्रसार किया है वह संस्कृत का बहिष्कार किया है।
- इस आयोग के सुझाव सामान्य है जो पिछले समय में गठित आयोग द्वारा पहले ही व्यक्त किए जा चुके हैं।
- आयोग के द्वारा पास तथा फेल की व्यवस्था का विरोध किया गया है।
- कम अंक पाने वाले व्यक्ति को अच्छे अंक पाने की व्यवस्था करने का प्रयत्न किया गया है।
- आयोग ने शिक्षा को जीवन की सत् प्रक्रिया माना है तथा नवीन उद्देश्यों की स्थापना पर बल दिया है।
- कार्य के अनुभव को प्रत्येक क्षेत्र में प्राथमिकता दी गई है।
- अध्यापकों को अच्छे वेतन व प्रोन्नति की सलाह दी गई है।
- चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा की उपेक्षा की गई है।
कोठारी आयोग की रिपोर्ट अपने आप में एक इनसाइक्लोपीडिया है।

कोठारी आयोग का प्रतिवेदन
आयोग ने अपने सुझावों एवं संस्तुतियों का 18 अध्यायो एवं 692 पृष्ठों मैं एक प्रतिवेदन तैयार किया और 29 जून 1966 ई• को भारत सरकार को तत्कालीन शिक्षामंत्री श्री एम• सी• छागला के समक्ष प्रस्तुत किया।
कोठारी आयोग का मूल्यांकन
किसी भी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन कुछ मूलभूत मानदंडों के आधार पर किया जाता है शिक्षा एक सामाजिक प्रतिक्रिया है। इससे संबंधित किसी भी विचार का मूल्यांकन समाज विशेष की तत्कालीन परिस्थितियों और भविष्य की मांग है उसकी उपयोगिता के आधार पर किया जाना चाहिए। इस आयोग के सुझावों का मूल्यांकन भारत की तत्कालीन 1965-1966 परिस्थितियों एवं उसकी भविष्य की मांगों के आधार पर करने का तो अब कोई औचित्य है नहीं। अतः हम उसका मूल्यांकन भारत की आज की परिस्थितियों और भविष्य की आवश्यकताओं के आधार पर करेंगे।
कोठारी आयोग के दोष
कोठारी आयोग के दोष निम्न हैं-
- आयोग की अधिकांश सिफारिशें आदर्शवादी और अव्यवहारिक है, जिनका क्रियान्वयन संभव नहीं है।
- आयोग द्वारा स्त्री शिक्षा से संबंधित सुझाव भी विशेष उपयोगी नहीं हैं।
- आयोग ने बेसिक शिक्षा की पूर्ण रूप से अवहेलना की है।
- आयोग में धार्मिक शिक्षा के विषय में कोई संस्कृत ना करके भारतीय धर्म और दर्शन की उपेक्षा की।
- आयोग ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि के प्रयोग का सुझाव दिया है, जबकि रोमन लिपि में अनेक कमियां हैं। रोमन के स्थान पर हमारी देवनागरी लिपि की सिफारिश अधिक उपयुक्त होती।
- आयोग का प्राथमिक स्तर पर शैक्षिक एवं व्यवसायिक निर्देशन का सुझाव आवश्यक है क्योंकि इस स्तर पर व्यवसायिक निर्देशन का प्रश्न ही नहीं उठता।
- आयोग में देश-विदेश के शिक्षाविद रखे गए थे, तब इनकी सुझावों में पंचमेल खिचड़ी होना स्वाभाविक था। फिर यह सभी उच्च शिक्षा से संबंधित थे। इसलिए प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के बारे में उनके विचारों में विविधता होना स्वाभाविक था।
उपर्युक्त दोषों के बावजूद यह निर्विवाद सत्य है कि आयोग ने शिक्षा में सुधार के लिए अच्छी योजना प्रस्तुत की है उसके सुझावों को यदि ईमानदारी से क्रियान्वित किया जाता तो भारतीय शिक्षा के उत्कर्ष में व्यापक प्रभाव पड़ता।