कक्षा प्रबन्धन के द्वारा शिक्षण प्रक्रिया को संगठित किया जाता है। कक्षा प्रबन्धन को क्रिया प्रवृत्ति के आधार पर परिभाषित किया गया है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्धों और अन्तः सम्बन्धों के माध्यम से अधिगम की प्रक्रिया सम्पादित होती है तथा कक्षा में कार्य तथा क्रियाकलापों से अधिगम परिस्थितियाँ पैदा की जाती हैं।
कक्षा प्रबन्धन से तात्पर्य कक्षा के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों के मनोवैज्ञानिक तथा विधिक प्रबन्धन से है जिसके द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की प्रभावी बनाया जा सके अर्थात् कक्षा प्रबन्धन को मानवीय एवं भौतिक संसाधनों तक ही सीमित नहीं किया जा सकता अपितु इसके सभी पक्षों—भौतिक, मानवीय, मानसिक, सामाजिक, भावात्मक तथा क्रियात्मक को भी सम्मिलित किया जाता है।
कक्षा प्रबन्धन
कक्षा प्रबन्धन के अन्तर्गत कक्षा में प्रयुक्त शिक्षण के मुख्य घटकों को सम्मिलित किया गया है। अध्यापक तथा विद्यार्थी इसके मुख्य अंग हैं। अध्यापक तथा विद्यार्थियों के मध्य सम्बन्ध विभिन्न तथ्यों पर निर्भर हैं। अध्यापक कार्यों से तात्पर्य अध्यापक के व्यवहार तथा शारीरिक भाषा व हाव-भाव से होता है। अपने व्यवहार तथा शारीरिक भाषा से विद्यार्थी कक्षा में अधिगम वातावरण का सृजन करता है।
अध्यापक के क्रिया-कलापों से अभिप्राय शाब्दिक अन्तःक्रिया तथा शाब्दिक सम्प्रेषण कौशल तथा योग्यताओं से है। इसका मुख्य लक्ष्य विद्यार्थियों में अधिगम की वृद्धि करना है, और कक्षा में सीखने के अधिगम की समुचित परिस्थितियों को उत्पन्न करना है। अर्थात् अधिगम का कार्य किसी समस्या को जन्म देने वाली परिस्थितियों की गणना करके समस्या के समाधान में सहयोग देना है। कक्षा प्रबन्धन की परिभाषा इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि कक्षा प्रबन्धन के अनेक घटक हैं।
कक्षा-कक्ष प्रबन्धन को निम्नांकित रूप से परिभाषित किया जा सकता है-
- श्रीमती आर. के. शर्मा के अनुसार, “कक्षा प्रबन्धन के अन्तर्गत समस्त तत्वों का प्रबन्ध सम्मिलित होता है जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।”
- प्रो. एस. के. दवे के अनुसार, “कक्षा प्रबन्धन का अभिप्राय कक्षा के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों के मनोवैज्ञानिक एवं विधिक प्रबन्धन से है जिससे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सके।” उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि कक्षा प्रबन्धन एक विशिष्ट एवं अधिक व्यापक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कक्षा से सम्बन्धित समस्त भौतिक संसाधनों, जेसे विद्यालय भवन, कुर्सी एवं मेज आदि एवं मानवीय संसाधन; जैसे- शिक्षक, विद्यार्थी आदि के प्रबन्धन की अहम भूमिका होती है।



कक्षा प्रबन्धन की आवश्यकता
भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही कक्षा प्रबन्धन की आवश्यकता विद्यमान रही है। प्राचीनकाल में शिक्षार्थी गुरुकुलों में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रारम्भ करने जाते थे वहाँ शिक्षकों को गुरुओं का दर्जा किया जाता था। शिक्षक एवं शिक्षार्थी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रारम्भ होने से पूर्व कक्षा-कक्ष व्यवस्था का निर्माण खले में करते थे। कक्षा-कक्ष की सफाई तथा गुरु के बैठने की उचित सफाई तथा अन्य व्यवस्थाएँ छात्र स्वयं करते थे। गुरुकुलों में शिक्षार्थी लाइन में बैठकर अधिगम प्रक्रिया का सम्पादन करते थे।
आधुनिक समय में कक्षा-कक्ष प्रबन्धन की आवश्यकता का स्वरूप अधिक विस्तृत हो गया है। इसमें अनेक प्रकार के परिवर्तन आ गए हैं। आज शिक्षार्थी मूक श्रोता की भाँति नहीं रह सकता आधुनिक समय में शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को ही सहभागिता की अति आवश्यकता है। छात्रों को कक्षा में अधिक क्रियाशील रखने के लिए उचित व्यवस्थाओं की अति आवश्यकता होती है। अतः उचित कक्षा-कक्ष प्रबन्धन से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं दक्षतापूर्ण बनाया जा सकता है अर्थात् आज के वातावरण में कक्षा-कक्ष प्रबन्धन व्यवस्थित रूप में होना आवश्यक हो गया है।
कक्षा प्रबन्धन का महत्व
कक्षा प्रबन्धन की प्रक्रिया का ज्ञान एक शिक्षक के लिए अति आवश्यक होता है, क्योंकि कक्षा प्रबन्धन में शिक्षक एवं शिक्षार्थी की अति महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक अच्छे अध्यापक को चाहिए कि वह कक्षा-कक्ष में उचित शैक्षिक वातावरण का निर्माण करे जिससे शिक्षार्थी कक्षा में प्रवेश करते ही अधिगम के लिए प्रेरित हो सकें। शिक्षक को छात्रों का अधिगम स्तर ऊँचा रखने के लिए शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सरल एवं प्रभावशाली बनाना चाहिए।
कक्षा प्रबन्धन का प्रमुख उद्देश्य कक्षा से सम्बन्धित सभी तथ्यों के मध्य समन्वय स्थापित करना होता है जिससे प्रबन्धन प्रक्रिया का चहुँमुखी विकास हो सके। एक अध्यापक के लिए कक्षा-कक्ष प्रबन्धन का महत्वपूर्ण उद्देश्य उपलब्ध भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का उचित प्रयोग करा होता है जिससे शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों ही लाभान्वित हो सकें। कक्षा-कक्ष के उचित प्रबन्धन एवं निर्माण से अधिगम प्रक्रिया को स्थायी एवं उचित स्तरीय गतिशीलता दी जा सकती है।
एक योग्य अध्यापक का प्रमुख उद्देश्य कक्षाओं को सम्पूर्ण सुविधाओं से परिपूर्ण बनाना होता है जिससे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया रुचिपूर्ण एवं प्रभावशाली बनाई जा सके। अतः हम कह सकते हैं कि कक्षा-कक्ष प्रबन्ध का शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अति महत्वपूर्ण स्थान होता है।
कक्षा प्रबन्धन के सिद्धान्त
कक्षा प्रबन्धन की जटिल प्रक्रिया को साधारण रूप से अथवा सरलता से नहीं समझा जा सकता है । इस हेतु कुछ सामान्य सिद्धान्त हैं जिनको कक्षा प्रबन्धन हेतु व्यवस्थित रूप से समझा जा सकता है। इनका अभ्यास किया जा सकता है तथा परिस्थिति अनुसार इन्हें कक्षा प्रबन्धन हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है। यद्यपि वह पूर्ण नहीं हैं फिर भी वह इसको सुलझाने के लिए तथा अध्यापक को विशिष्ट ध्यान हेतु अध्यापक के लिए सहायक होते हैं।
- कक्षा प्रबन्धन के सामान्य सिद्धान्त – शिक्षा प्रबन्धन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- विद्यार्थियों में न केवल बाह्य नियंत्रण का विकास अपितु उनमें आन्तरिक नियन्त्रण का विकास करना भी अध्यापक का लक्ष्य होना चाहिए।
- यदि विद्यार्थियों को उनकी रुचियों तथा योग्यताओं के अनुसार अर्थपूर्ण कार्यों में लगाया जाये तो उनको कम अनुशासन सम्बन्धी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
- जब विद्यार्थी कक्षा के नियमों को समझ लें तथा उन्हें स्वीकार कर लें तो वह उनका अनुसरण करें।
- इसमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए कि उसमें नियंत्रण पर ही बल न दिया जाये बल्कि इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाये कि विद्यार्थियों को अधिक से अधिक समय उत्पादक क्रिया-कलापों में व्यतीत हो।
- कक्षा प्रबन्धन में विशिष्ट सिद्धान्त – शिक्षा प्रबन्धन के विशिष्ट अधिनियम निम्नलिखित हैं-
- विद्यार्थियों को उत्तरदायित्व महसूस करने दें।
- संकेत पुनर्बलन तथा उपर्युक्त व्यवहार का प्रयोग ।
- यदि नियम आवश्यक हों तो स्पष्ट नियम बनाये जायें।
- व्यवस्थित पाठ तथा स्वतंत्र क्रिया-कलापों का नियोजन।
- विलम्ब तथा अवरोध कम-से-कम हो।
- प्रयत्नों को प्रोत्साहन दें।
नियम हर एक परिस्थिति में लागू नहीं होते, लेकिन इस तथ्य का ध्यान रखना कि तात्कालिक परिस्थिति में कैसे और कम अनुदेशन दिये जायें और विद्यार्थियों के अच्छे व्यवहार का वर्णन करना तथा उन्हें अच्छे व्यवहार हेतु पुरस्कृत करना जिससे उन्हें ज्ञात हो कि उन्हें क्या करना चाहिए अथवा कैसा व्यवहार करना चाहिए और वह अच्छे व्यवहार करने हेतु प्रेरित हों। इन सामान्य विशेषताओं के अलावा अध्यापक का व्यवहार भी कक्षा में अच्छे वातावरण की उत्पत्ति तथा समय तथा प्रयत्नों के अधिकाधिक सउपयोग में सहायक होता है।



कक्षा प्रबन्धन हेतु शिक्षक की भूमिका
शिक्षक कक्षा प्रबन्धन का मुख्य घटक है। वह इसमें व्यवस्थापक, दार्शनिक, मार्गदर्शक तथा मित्र सभी की भूमिका निभाता है। कक्षा प्रबन्धन में शिक्षक के बहुत से अधिकार, उत्तरदायित्व, गुणवत्ता तथा नेतृत्व होते हैं। उसको अनुशासन का उपयुक्त स्वरूप तथा शिक्षण के उपयुक्त आव्यूह तथा शिक्षण प्रविधियों का उपयोग करना पड़ता है। उसको विद्यार्थियों के साथ सम्बन्ध तथा अपने साथी अध्यापकों तथा प्रधानाचार्य के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखने पड़ते हैं। कक्षा प्रबन्धन हेतु अध्यापक की कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं-
- अनुसंधानकर्त्ता की भूमिका – शिक्षक में कक्षा प्रबन्धन से संबंधित समस्याओं का समाधान करने की योग्यता होनी चाहिए। शिक्षकों को क्रियात्मक अनुसंधान का ज्ञान तथा कौशल होना चाहिए। क्रियात्मक अनुसंधान योजना के द्वारा कक्षा प्रबन्धन की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
- नेतृत्व की भूमिका – एक प्रबन्धक में नेतृत्व का गुण होना चाहिए। एक शिक्षक अपनी कक्षा के नेता के रूप में कार्य करता है। शिक्षा में नेतृत्व प्रदान करने का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है।
- दार्शनिक की भूमिका – शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि उसे विषय वस्तु का पूरा ज्ञान हो, उसको अपने पाठ्य विषय पर पूरा स्वामित्व होना चाहिए तथा अपने विषय से सम्बन्धित नवीनतम विकास के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए, उसे अपने विषय में रुचि होनी चाहिए। अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि शिक्षक प्रभावशीलता हेतु शिक्षक का अपने विषय पर पूर्ण स्वामित्व घटक एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
- प्रबन्धक की भूमिका – शिक्षक को प्रबन्धक के कार्यों, अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों का ज्ञान होना चाहिए। एक प्रबन्धक के मुख्य कार्य हैं-नियोजन, संगठन, पर्यवेक्षण, निर्देशन, संयोजन, मूल्यांकन तथा शिक्षण प्रक्रिया का नियंत्रण। अध्यापक को बहुत से दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है।
- शिक्षक की भूमिका – शिक्षक अपने विद्यार्थियों तथा समाज के लिए आदर्श होता है, इसलिए उसको शिक्षक की तरह दिखाना चाहिए तथा शिक्षक की तरह व्यवहार करना चाहिए। शिक्षक कैसे कपड़े पहनता है, वह विद्यार्थियों के साथ कैसे बातचीत करता है। इन सबका प्रभाव विद्यार्थियों पर पड़ता है। शिक्षक को अपने विद्यार्थियों का व्यवहार तथा उनकी सामाजिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जानना चाहिए।
- मार्गदर्शक की भूमिका – शिक्षक का कार्य विद्यार्थियों की व्यक्तिगत तथा अधिगम सम्बन्धी समस्याओं के निदान में विद्यार्थियों की सहायता करना है। वह विद्यार्थियों की समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से समाधान करने हेतु उन समस्याओं के कारणों को जानने का प्रयास करता है तथा विद्यार्थियों को उन समस्याओं के कारण से अवगत करके उनकी समस्याओं का समाधान करता है। कमजोर विद्यार्थियों के लिए शिक्षण उपचार (अनुवर्ग शिक्षण) आदि की व्यवस्था की जाती है।
आधुनिक युग में बहुत से दायित्वों को पूरा करना पड़ता है क्योंकि आज समाज बहुत जटिल हो गया है। शिक्षक को कक्षा प्रबन्धन हेतु बहुत-सी भूमिकायें पूरी करनी पड़ती हैं। विचारशीलता, ईमानदारी तथा शिक्षण में सम्बद्धता शिक्षक के यह तीन महत्त्वपूर्ण गुण होते हैं। शिक्षक रुचिपूर्ण ढंग से शिक्षण के माध्यम से कक्षा प्रबन्धन में प्रगति करता है। शिक्षक कक्षा प्रबन्धन क्रिया-कलापों का ज्ञान, प्रशिक्षण तथा अनुदेशनों का प्रयोग कर सकता है।