औद्योगीकरण शब्द का प्रयोग प्रायः दो अर्थों में किया जाता है प्रथम संकुचित अर्थ में तथा दूसरा व्यापक अर्थ में संकुचित अर्थ में औद्योगीकरण का अर्थ है निर्माता उद्योगों की स्थापना एवं विकास। इस अर्थ में औद्योगीकरण को आर्थिक विकास की व्यापक प्रक्रिया का एक अंग माना जाता है जिसका उद्देश्य उत्पादन के साधनों की कुशलता में वृद्धि करके जीवन स्तर को ऊँचा उठाना है।
औद्योगीकरण
व्यापक अर्थ में औद्योगीकरण से आशय मात्र निर्माता उद्योगों की स्थापना नहीं है वरन यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी भी देश की सम्पूर्ण आर्थिक संरचना प्रभावित की जा सकती है। इसे निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-
औद्योगीकरण से अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें हाथ द्वारा वस्तुओं का उत्पादन अन्य शक्ति द्वारा चालित यन्त्रों द्वारा उत्पादन में बदल दिया जाता है। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप कृषि की तकनीकी, आवागमन, संचार, व्यापार और वित्त के संगठन में भी परिवर्तन आ जाता है।
एम. एस. गोरे
शब्द के सन्नहित अर्थ में औद्योगीकरण से अभिप्राय आर्थिक वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में अमानवीय शक्ति के स्रोतों का अधिकाधिक प्रयोग है।
विल्वर्ट ई० मूर
औद्योगीकरण उत्पादन की वह व्यवस्था है जिसका उद्भव वैधानिक ज्ञान के नियमित विकास, अध्ययन तथा प्रयोग के परिणामस्वरूप हुआ है। यह श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण पर आधारित है और इसमें यान्त्रिक, रासायनिक, शक्ति चलित एवं संगठनात्मक तथा बौद्धिक सहायता का प्रयोग किया जाता है।
ह्यूग
औद्योगीकरण से अभिप्राय एक ऐसी स्थित से है जिनमें पहले का कृषक अथवा व्यापारिक समाज एक औद्योगिक समाज की दिशा की ओर परिवर्तित होने लगता है।
क्लार्क केर


औद्योगीकरण की विशेषताएं
औद्योगीकरण की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रयोग
विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास औद्योगीकरण की आत्मा है। औद्योगीकरण के लिए सूक्ष्म यन्त्र, जटिलतम मशीनें तथा अन्य वैज्ञानिक उपकरण आदि औद्योगिक समाजों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से ही निर्मित होते हैं। इनमें समाज में भारी मशीन निर्माण धातु और रासायनिक उद्योगों का भी विकास होता है। बाँध और भवन निर्माण, कारखानों का निर्माण, यातायात, संचार तथा प्राकृतिक शक्तियों द्वारा बिजली उत्पन्न करने आदि सभी क्षेत्रों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विस्तार किया जाता है।
2. आर्थिक वृद्धि
किसी राष्ट्र का आर्थिक विकास उस देश में हुए औद्योगीकरण की मात्रा पर निर्भर है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय आय तब तक नहीं बढ़ सकती जब तक उस देश में • औद्योगीकरण का तीव्र गति से विकास न हो। जब किसी देश में लघु और बड़े उद्योगों का विकास होता है तो काम करने योग्य व्यक्ति उनमें संलग्न होते हैं जिससे उनकी प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। इससे उनके रहन-सहन के स्तर में वृद्धि होती है तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ बनती है।
3. नवीन मूल्यों का विकास
क्लार्क केर के शब्दों में, औद्योगिक समाज में विज्ञान और प्राविधिक ज्ञान के उच्च मूल्य विकसित होते हैं और इसीलिए वैज्ञानिकों और प्राविधिक शास्त्रियों को उच्च सम्मान और पुरस्कार प्राप्त होते हैं। औद्योगिक समाज में जिन मूल्यों को प्रोत्साहन मिलता है उनमें प्रमुख हैं कठिन परिश्रम, अनुशासन समय की नियमितता, प्रचार कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठा आदि। इनके साथ ही औद्योगीकरण तथा तार्किकता एवं लौकिकीकरण के मूल्यों में वृद्धि करके परम्पराओं को समाप्त करके नवीन मूल्यों को विकसित करता है।
4. प्रवजन
मूरे ने प्रव्रजन को औद्योगीकरण की एक विश्वव्यापी विशेषता बताया है। प्रव्रजन तीन प्रकार का होता है अस्थायी प्रव्रजन मौसमी प्रव्रजन एवं स्थायी प्रव्रजन अस्थायी प्रवजन में लोग संसार के औद्योगिक समाजों में अस्थायी रूप से निवास करने लगते हैं। मौसमी प्रवजन के अन्तर्गत एक निश्चित मौसम में ही लोग कारखानें में काम करने जाते हैं तथा स्थायी प्रवजन वह है जिसमें लोग अपने परिवारों सहित उस औद्योगिक क्षेत्र में स्थायी रूप से निवास करने लगते हैं। वस्तुतः इस प्रकार का प्रवजन आर्थिक विकास में वृद्धि करके औद्योगीकरण की प्रक्रिया को विकसित करता है।
5. बड़े पैमाने पर उत्पादन
औद्योगीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत कम समय और श्रम में बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है। विज्ञान और तकनीकी के विकास से उत्पादन क्षमता में तो वृद्धि होती ही है साथ ही वस्तुओं के स्तर में भी सुधार होता है। अनेक आधुनिक प्रतिष्ठानों में जहाँ स्वचलित मशीनों का प्रयोग होता है कम व्यक्ति अत्यधिक उत्पादन करने में समर्थ हो जाते हैं।
6. विशेषीकृत मानवीय स्रोत
औद्योगीकरण की प्रक्रिया को विकसित करने में इंजीनियरों, तकनीशियनों, व्यवस्थापकों और कुशल श्रमिकों की स्पष्ट भूमिकायें होती हैं। औद्योगीकरण की प्रक्रिया परम्परावादी मान्यताओं मूल्यों और विधानों का तिरस्कार करके गत्यात्मक समाज की मान्यताओं में वृद्धि करती है। वह एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करती है जिसें नवीन उत्पादन प्रक्रियाओं का विकास सम्भव हो सके।
गणित, भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, भू-विज्ञान आदि प्राकृतिक विज्ञानों के विकास पर पर्याप्त बल दिया जाता है। इन विज्ञानों की अपेक्षा सामाजिक विज्ञान को कम महत्व प्राप्त होता है। औद्योगिक समाज में उच्च शिक्षा की व्यवस्था श्रम विभाजन और विशेषीकरण के गुणों में वृद्धि करती है। इन्हीं गुणों पर आधारित विभिन्न लोगों के कार्य विभाजित होते हैं। कच्चा माल लाने, उसे साफ करने तथा पो माल बनने तक की विभिन्न प्रक्रियाओं में विशेषीकृत ज्ञान पर आधारित श्रम विभाजन रहता है।
7. नगरों का विकास
औद्योगीकरण से नगरों का विकास होता है। जिस समाज में जितनी तीव्र गति से औद्योगीकरण विकसित होता है, उतनी ही तीव्र गति से कृषि में संलग्न लोग कृषि कार्य को छोड़कर उद्योग-धन्धों और नौकरियों की तरफ भागने लगते हैं। वास्तव में औद्योगिक समाजों में नगरीकृत जीवन शैली को आत्मसात करने की प्रवृत्ति नगर निवासियों में विकसित होती है।


समाज पर औद्योगीकरण का प्रभाव
समाज पर औद्योगीकरण के प्रभाव को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है-
1. सामुदायिक भावना की समाप्ति
पहले गावों में लोगों का व्यवहार ग्राम समुदाय तक सीमित था। आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध व व्यवहार रखने के कारण उनमें ‘हम की भावना’ विद्यमान रहती थी किन्तु औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप लोगों में अब व्यक्तिवादी भावना अधिक पनप रही है। आज व्यक्ति स्वार्थों और हितों के दृष्टिकोण से विभिन्न समूहों से सम्बन्ध अधिक रखता है। उसका अपने परिवार, पड़ोस तथा पूरे समुदाय के हितों के प्रति झुकाव काफी कम हो गया है।
2. संयुक्त परिवारों का विघटन
अनेक अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकाले गये हैं कि भारतीय सन्दर्भ में औद्योगीकरण के कारण संयुक्त परिवार विघटित हो रहे हैं। संयुक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होती है तथा औद्योगीकरण के कारण मकानों की समस्या अधिक होती है। यही वजह है कि कार्य करने वाले व्यक्ति कार्य-स्थल पर अपने परिवार के सदस्यों को नहीं लाते और उनके लिए यह भी सम्भव नहीं हो पाता कि उद्योग में काम करने के बाद वे रोज अपने परिवारों में लौट जायें तथा फिर दूसरे दिन काम पर आ जायें। इन कारणों से व्यक्ति केवल अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर ही औद्योगिक क्षेत्रों में बस जाते हैं। इसीलिए औद्योगिक क्षेत्रों में एकाकी परिवारों की प्रधानता हो जाती है।
3. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन
औद्योगीकरण के फलस्वरूप संयुक्त परिवार का स्थान एकाकी परिवार ले रहे हैं, विवाह की आयु में वृद्धि हो रही है, जीवन में धर्म का महत्व कम हो रहा है तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण का स्थान भौतिकवाद ले रहा है। इन सब परिवर्तनों ने स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में पर्याप्त सुधार किया है। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने में निम्न बातें उत्तरदायी हैं
- अकेले पुरुष की आय से परिवार का खर्च चलना मुश्किल हो गया है, इसलिए स्त्रियों को भी नौकरी करने के लिए बाध्य होना पड़ गया है। इससे वे पहले की तरह पुरुष पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं रहती। उनकी यह बढ़ती हुई आर्थिक स्वतन्त्रता उनकी सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने में विशेष रूप से सहायक रही है।
- औद्योगीकरण के फलस्वरूप श्रम के यन्त्रीकरण ने भी स्त्रियों को आर्थिक आत्मनिर्भरता प्रदान की है। आधुनिक उद्योगों में अधिकतर कार्य स्वचालित यन्त्रों के द्वारा होते हैं। उनमें शारीरिक बल की नहीं वरन बौद्धिक बल की आवश्यकता होती है, इसलिए जो काम पुरुष कर सकते हैं, वही काम उतनी ही कुशलतापूर्वक स्त्रियाँ भी कर सकती है। स्पष्ट है कि ऐसी परिस्थितियों में उनकी सामाजिक स्थिति पुरुषों से निम्न नहीं रह सकती।
- स्त्रियाँ अब उच्च शिक्षा प्राप्त करने लगी हैं तथा अनेक सामाजिक संस्थाओं में भी वे महत्वपूर्ण सामाजिक कार्य करती हैं। इससे स्त्रियों की सामाजिक स्थिति अब पहले की अपेक्षा कही अधिक बेहतर हो गई है।
4. जाति प्रथा का कम महत्व होना
प्रायः हम देखते है कि औद्योगिक केन्द्रों में देश के प्रत्येक भाग से विभिन्न जातियों के लोग आते हैं, क्योंकि उद्योग में सफलता प्राप्त करने की दृष्टि से कुशल कारीगर चाहिए चाहें वे किसी भी जाति के क्यों न हों। उसके परिणामस्वरूप विभिन्न जातियों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। आपस में एक साथ रहने, एक साथ काम करने एवं एक साथ खानपान के कारण इन विभिन्न जातियों के लोगों को एक-दूसरे को समझने का मौका मिलता है। इससे भारत में औद्योगीकरण के कारण जाति प्रथा का महत्व कम हो गया है तथा विभिन्न जातियों के मध्य सामाजिक दूरी भी कम हुई है।
5. अपराधों में वृद्धि
औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप सामाजिक विघटन तथा अपराधों में भी वृद्धि होती है। दिन भर की काम की थकान से चूर श्रमिक सांयकाल या रात्रि में मंदिरा और जुए की शरण लेता है या फिर वह सस्ते मनोरंजन की तलाश में वेश्यालयों में जाता है। सच बात तो यह है कि व्यक्ति पर पारिवारिक नियन्त्रण का अभाव, मासिक संघर्ष एवं तनाव, व्यक्तिवादी तथा भौतिवादी मूल्यों की प्रधानता तथा औद्योगिक केन्द्रों का प्रति-पद्धत्मिक एवं संघर्षमय जीवन आदि सभी कारक अपराधों में वृद्धि करते हैं तथा सामाजिक विघटन में सहायक होते हैं।
6. मानसिक तनाव एवं मानसिक रोग
औद्योगीकरण की प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धा को • अत्यधिक महत्व मिलता है। इससे व्यक्ति में अधिक भौतिक सुख व समृद्धि पाने की लालसा जाग्रत हो जाती है जिससे मानसिक तनाव का जन्म होता है और ऐसे लोग जो अपने इन भौतिकवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल होते हैं, वे कुण्ठा के शिकार हो जाते हैं जो आगे चलकर मानसिक रोग में बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए अमरीका जैसे देश में यहाँ औद्योगीकरण की गति अत्यन्त तीव्र है, अधिकांश लोग मानसिक तनाव व मानसिक रोग के शिकार हो जाते हैं। इसके साथ ही साथ व्यापार में हानि, अनिश्चितता का वातावरण तथा बेकारी आदि ऐसी अवस्थायें है, जिनसे मानसिक रोगों की वृद्धि होती है।


7. नवीनता की ओर उन्मुख
औद्योगीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों की गति तीव्र होती है। औद्योगीकरण के कारण एक ओर तो परिवर्तनों का विरोध करने वाली प्रथाओं रूढ़ियों और नये प्रयोगों को गृहण करने की इच्छा बलवती होती है। औद्योगिक केन्द्रों में रहने वाले व्यक्तियों को निरन्तर नवीन परिस्थितियों व समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त ये व्यक्ति देश-विदेश के अनेक लोगों के सम्पर्क में आते रहते हैं, इससे इसका दृष्टिकोण उदार हो जाता है और वे नवीन परिवर्तनों को ग्रहण करने के लिये तत्पर रहते हैं।
8. मनोरंजन का व्यवसायीकरण
औद्योगीकरण होने से पूर्व लोग पारिवारिक या सामुदायिक आधार पर भजन, कीर्तन तथा नृत्य आदि से अपना मनोरंजन कर लेते थे, लेकिन अब औद्योगीकरण के युग में व्यापारिक मनोरंजन जैसे सिनेमा, क्लब, नाटक आदि को प्रोत्साहन मिलता है। आज व्यक्ति को पारिवारिक या सामुदायिक मनोरंजन से आनन्द प्राप्त नहीं होता। आज वह पूर्णरूप से व्यापारिक मनोरंजन की ओर झुकता जा रहा है।
9. कृत्रिम जीवन
औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आज व्यक्ति कम व्यवहारिक अथवा उसकी कार्यशैली कृत्रिम हो गई है। उसके व्यवहार में दिखावा अथवा प्रदर्शन अधिक होता है। औद्योगिक केन्द्रों में रहने वाला व्यक्ति अब केवल अपने स्वार्थों और हितों की ही परवाह करता है। अपने हितों के सामने वह अपने परिवार, पड़ोस तथा समाज की भी परवाह नहीं करता।