एकाकी परिवार अर्थ एकाकी परिवार की विशेषताएँ व 7 कार्य

एकाकी परिवार विश्व के सभी समाजों की एक सार्वभौमिक विशेषता है, लेकिन भारतीय समाज में इस तरह के परिवार भारत की सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम हैं। भारत में औद्योगीकरण और नगरीकरण के फलस्वरूप जैसे-जैसे स्थान परिवर्तन करने की प्रवृत्ति बढ़ती गई संयुक्त परिवारों की जगह एक ऐसी परिवार व्यवस्था विकसित होने लगी जिसे हम एकाकी परिवार व्यवस्था कहते हैं। विशेष बात यह है कि आर्थिक सम्पन्नता तथा मूल्यों में वृद्धि होने के साथ एकाकी परिवार हिन्दुओं के अतिरिक्त जनजातीय समाजों की भी विशेषता बनने लगे।

एकाकी परिवार का अर्थ

अधिकांश लेखक यह मानते हैं कि एकाकी परिवार सामाजिक संरचना में सबसे छोटी इकाई हैं। यह परिवार में हैं जिनके सदस्य केवल पति-पत्नी और उनके अविवाहित बच्चे ही होते हैं। जैसे ही किसी युवा सदस्य का विवाह होता है, वह अपने माता-पिता से अलग होकर अपने लिए एक अलग एकाकी परिवार की स्थापना कर लेता है। एक एकाकी परिवार में आर्थिक सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं तथा परिवार के प्रति सदस्यों के अधिकार और कर्तव्य विशेषीकृत एवं सीमित प्रकृति के होते हैं।

सभी समाजों में पति-पत्नी तथा उनकी अपरिपक्व आयु की उनकी सन्तानों से एक एकाकी परिवार का निर्माण होता है तथा इसे समुदाय के शेष लोगों से अलग एक पृथक् इकाई के रूप में देखा जाता है।

लोवी

एकाकी परिवार वह है जिसके सदस्य अपने दूसरे बन्धुबान्धवों से सम्पत्ति, आय, अधिकार तथा कर्तव्यों से उस तरह सम्बन्धित नहीं होते जैसा कि नातेदारी से सम्बन्धित सदस्यों से अपेक्षा की जाती है।

प्रोफेसर आई. पी. बेसाई

एकाकी परिवार की विशेषताएँ

एकाकी परिवार को एक सार्वभौमिक इकाई के रूप में देखा जाता है। इसका तात्पर्य है कि कुटुम्ब के रूप में परिवार अथवा संयुक्त परिवार का सम्बन्ध कुछ विशेष संस्कृतियों से ही होता है, जबकि एकाकी परिवार विश्व के प्रत्येक समाज में पाये जाते हैं।

प्रत्येक सामान्य व्यक्ति कम से कम दो एकाकी परिवारों का सदस्य जरूर होता है- जन्म का परिवार जिसमें हमारा जन्म और पालन-पोषण होता है तथा दूसरा प्रजनन का परिवार जिसमें हम स्वयं बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करते हैं।

जी. पी. मरडॉक

इस प्रकार जन्म के परिवार में हमारे माता-पिता और अविवाहित भाई-बहिन सम्मिलित होते हैं, जबकि प्रजनन या जन्म के परिवार में पति के साथ उसकी पत्नी तथा जन्म दिये गये बच्चों का समावेश होता है। एकाकी परिवारों की संरचना तथा सदस्यों की मनोवृत्तियां संयुक्त परिवार या कुटुम्ब की तुलना में काफी भिन्न रूप में देखने को मिलती हैं। इन विशेषताओं के सन्दर्भ में ही एकाकी परिवारों की प्रकृत्ति को समझा जा सकता है।

  1. छोटा आकार — एकाकी परिवार आकार में बहुत छोटे होते हैं। एक परिवार का निर्माण पति-पत्नी और उनके अविवाहित सन्तानों से ही होने के कारण साधारणतया इनकी सदस्य संख्या 5-6 तक ही सीमित रहती है। आधुनिकीकरण से सम्बन्धित वर्तमान मूल्यों के अनुसार अब दो या अधिक-से-अधिक तीन बच्चों वाले परिवार को ही एक आदर्श एकाकी परिवार के रूप में देखा जाने लगा है।
  2. नव-स्थानीय संस्कृति — डॉ. एस. सी. दुबे ने एकाकी परिवारों को व्यावहारिक अर्थ में ‘नव-स्थानीय परिवार’ कहा है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि शिक्षा, आजीविका की खोज तथा परिवर्तन की इच्छा वे आधार हैं जिनके फलस्वरूप आज एक बड़ी संख्या में लोग किसी नए स्थान पर जाकर अपने लिए एक अलग परिवार की स्थापना करते हैं। इस दशा में यदि एकाकी परिवारों को नव स्थानीय परिवार कहा जाये तो इनकी पारिस्थितिकी और सदस्यों की मनोवृत्तियों को अच्छी तरह समझा जा सकता है।
  3. स्वतन्त्र सामाजिक इकाई — एकाकी परिवार औद्योगीकरण तथा आधुनिकरण की देन है। व्यक्तिवादिता ऐसे परिवारों की मुख्य विशेषता है। व्यक्तिवादिता के कारण एकाकी परिवारों में सभी सदस्यों का उद्देश्य अधिक-से-अधिक वैयक्तिक स्वतन्त्रता और वैयक्तिक प्रसन्नता प्राप्त करना होता है। इन परिवारों में अक्सर पति और पत्नी की सम्पत्ति भी एक-दूसरे से पृथक् होती है। परिवार का कोई सदस्य स्त्री हो या पुरुष, किशोर हो या युवा, उसे आजीविका उपार्जित करने और उसका अपनी इच्छानुसार उपयोग करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है। माता-पिता का काम बच्चों को केवल उपयोगी सलाह देना है, उनकी गतिविधियों में किसी तरह का हस्तक्षेप करना नहीं।
  4. आर्थिक आत्मनिर्भरता एकाकी परिवार अपने को एक स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर आर्थिक इकाई के हृदय में देखते हैं। आजीविका के साधनों के साथ उपभोग सम्बन्धी निर्णय उनके अपने होते हैं। किसी आकस्मिक विपत्ति से उत्पन्न होने वाली कठिनाई का सामना करने के लिए इस तरह के परिवार अपने बन्धु बान्धवों पर निर्भर नहीं होते। परिवार में साधारणतया उन लड़कियों को अधिक सम्मान मिलता है जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों।
  5. अर्जित प्रस्थिति की प्रधानता — एकाकी परिवार में परिवार के किसी सदस्य को केवल उसकी आयु अथवा लिंग के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं मिलते। परिवार का जो सदस्य सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में जितनी अधिक सफलता प्राप्त कर लेता है, उसे उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा मिल जाती है। इसके फलस्वरूप अक्सर परिवार में स्त्री की प्रस्थिति पुरुष सदस्यों से भी ऊंची हो सकती है, यदि उसने पुरुषों की तुलना होता।
  6. सदस्यों में मैत्री सम्बन्ध – वढ़ती हुई वैयक्तिक स्वतन्त्रता के कारण एकाकी परिवार का अस्तित्व तभी सुरक्षित रहता है जब सदस्यों के सम्बन्ध प्रभुत्व और अधीनता के न होकर मैत्रीपूर्ण हों। मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध समतावादी मूल्यों पर आधारित होते हैं। साधारणतया परिवार के प्रमुख निर्णय सभी सदस्यों की सहमति से लिये जाते हैं। माता-पिता द्वारा बच्चों को दी जाने वाली विभिन्न सुविधाओं को एक नैतिक दायित्व के रूप में देखा जाता है, एक बोझ के रूप में नहीं।
  7. तर्कप्रधान जीवन के. एम. कापड़िया ने अपने एक लेख में स्पष्ट किया है कि शिक्षित एकाकी परिवारों की संरचना में तार्किक जीवन एक प्रमुख विशेषता है। इसका तात्पर्य है कि इन परिवारों में बच्चों का समाजीकरण परम्परा, प्रथाओं, रूढ़ियों या अन्धविश्वासों के आधार पर नहीं होता। यह सच है कि इन परिवारों में अनेक संस्कारों और अनुष्टानों का आयोजन किया जाता है, लेकिन ऐसे आयोजन कर्मकाण्डों पर आधारित न होकर सम्बन्धों के विस्तार पर आधारित होते हैं। ऐसे अवसरों पर आयोजित भोज का रूप धार्मिक न होकर पूरी तरह सामाजिक होता है। सामान्य जीवन में भी सदस्यों से यह आशा की जाती है कि तार्किक व्यवहारों को अधिक महत्व दें।
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एकाकी परिवार के कार्य

मरडॉक ने अपनी पुस्तक ‘सोशल स्ट्रक्चर’ में लिखा है कि एकाकी परिवार सामाजिक जीवन से सम्बन्धित चार मौलिक कार्यों को करना अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। इनका सम्बन्ध यौन सम्बन्धों की संस्थागत पूर्ति, आर्थिक क्रियाओं, प्रजनन तथा शैक्षिक कार्यों से है। किंग्सले डेविस ने अपनी पुस्तक ‘ह्यूमन सोसाइटी’ में एकाकी परिवार के चार प्रमुख कार्यों का उल्लेख किया है-बच्चों को जन्म देना, अपरिपक्व बच्चों का पालन-पोषण करना, बच्चों को आजीविका में लगाना तथा उनका समाजीकरण करना।

साधारणतया कुछ धार्मिक क्रियाओं को पूरा करना भी एकाकी परिवारों से सम्बन्धित है, लेकिन एकाकी परिवारों की वर्तमान संरचना में इनका अधिक महत्व देखने को नहीं मिलता। एकाकी परिवारों के कार्यों के आधार पर इनकी प्रकृति को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है:

  1. यौन सम्बन्धों की पूर्ति – यह सभी परिवार का एक सार्वभौमिक प्रकार्य है, लेकिन एकाकी परिवारों में पति-पत्नी के सम्बन्धों का मुख्य आधार उनके द्वारा एक दूसरे की यौनिक सन्तुष्टि का विशेष ध्यान रखना है। एकाकी परिवार का आकार छोटा होने के कारण पति-पत्नी को सन्तुलित यौन सम्बन्धों के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। यौनिक सम्बन्धों का उद्देश्य केवल सन्तान को जन्म देना ही नहीं होता बल्कि भावनात्मक आधार पर पारस्परिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ करना होता है।
  2. प्रजनन का कार्य — परिवार एक ऐसी संस्था है, जो समाज की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए आवश्यक है। इसका कारण यह है कि परिवार में ही जन्म लेने वाले बच्चों को वैध माना जाता है। एकाकी परिवार में कम-से-कम बच्चों के जन्म को अधिक महत्व दिया जाता है जिससे उनकी आवश्यकताओं को सर्वोत्तम ढंग से पूरा किया जा सके। इसके बाद भी यह एकाकी परिवार के अनिवार्य कार्यों में से एक है।
  3. बच्चों का पालन-पोषण – डेविस के अनुसार ऐसे परिवार बच्चों के पालन-पोषण का एक उपयोगी माध्यम है। एक बच्चा जब तक परिपक्व आयु का नहीं हो जाता तब तक उसके स्वास्थ्य, सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति माता-पिता द्वारा ही की जाती है इस अर्थ में एकाकी परिवार बच्चों के लिए उनका सामाजिक बीमा है, क्योंकि पालन-पोषण का कार्य माता-पिता के अतिरिक्त परिवार का कोई भी दूसरा सदस्य उतनी अच्छी तरह नहीं कर सकता।
  4. आजीविका की व्यवस्था सभी तरह के परिवार कुछ आर्थिक क्रियाओं के द्वारा अपने सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, लेकिन ऐसे परिवार में आजीविका की व्यवस्था करना पूरी तरह पति या पति-पत्नी दोनों का दायिता होता है। एक विशेष सामाजिक संरचना तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण माता-पिता को ऐसे परिवारों में अधिक श्रम करना होता है, लेकिन परिवार को संगठित रखने में आर्थिक क्रियाओं की भूमिका का अपना अलग महत्व है।
  1. समाजीकरण का कार्य — एकाकी परिवार में बालक को इस तरह की शिक्षा दी जाती है जिससे वह यह समझ सके कि उसे अपने स्कूल, पड़ोस, पारिवारिक मित्रों और मेहमानों के साथ किस तरह का व्यवहार करना है? साधारणतया एकाकी परिवार में व्यवहार के नियम कुछ भिन्न प्रकृति के होते हैं। इन नियमों की सीख के अनुसार ही बच्चे का एक विशेष व्यक्तित्व विकसित होने लगता है। ऐसे परिवार द्वारा किया जाने वाला समाजीकरण जीवन के व्यावहारिक और यथार्थ अनुभवों पर आधारित होता है, काल्पनिक किस्से-कहानियों पर नहीं।
  2. शैक्षणिक कार्य एकाकी परिवारों का एक मुख्य कार्य आरम्भिक जीवन से ही बच्चे को व्यवस्थित शिक्षा की सुविधाएं प्रदान करना है। इन परिवारों में बच्चों की संख्या बहुत सीमित होने के कारण माता-पिता का यह प्रयत्न रहता है कि बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी सके वर्तमान युग में शिक्षा प्रणाली बहुत महंगी हो जाने के कारण केन्द्रक परिवारों में महिलाओं द्वारा भी इसीलिए आजीविका उपार्जन का काम किया जाने लगा है जिससे बच्चों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
  3. मैत्री सम्बन्धों की स्थापना — एकाकी परिवारों का एक मुख्य कार्य नातेदारी सम्बन्धों की जगह मैत्री सम्बन्धों में अधिक-से-अधिक वृद्धि करना है। इसका उद्देश्य मनोरंजन की आवश्यकता को पूरा करने के साथ ही अपनी सामाजिक और आर्थिक प्रस्थिति को भी ऊंचा उठाना होता है। साधारणतया एक एकाकी परिवार के मैत्री सम्बन्धों के दायरे से ही उसकी सामाजिक प्रस्थिति का मूल्यांकन किया जाने लगता है।

उपर्युक्त कार्यों के बाद भी एकाकी परिवारों की एक विशेष संरचना के कारण अनेक नयी पारिवारिक समस्याएं सामने आ रही हैं। परम्परागत रूप से परिवार में जिन समस्याओं को पहले महसूस नहीं किया गया था, वे समस्याएं एकाकी परिवारों का अनिवार्य हिस्सा बनने लगी हैं। यह परिवार न तो अपने आप को पुरानी मान्यताओं से अलग कर सके हैं और न ही नये युग की आवश्यकताओं के अनुसार अपने आप को पूरी तरह बदल सके हैं।

डॉ. शाह ने लिखा है कि भारत में एकाकी परिवार एक सन्धिकाल में है। एक ओर यह अपने आप को आधुनिक होने का दावा करते हैं तो दूसरी ओर अनेक ऐसे तनावों से घिरे हुए हैं जिनके कारण इनकी उपयोगिता सन्देहपूर्ण हो जाती है। ऐसे परिवारों में पति-पत्नी को उन सभी भूमिकाओं का साथ-साथ निर्वाह करना जरूरी होता है जिनका सम्बन्ध आजीविका उपार्जन, बच्चों के पालन-पोषण, शिक्षा, घरेलू साज-सज्जा तथा चाय-पार्टियों आदि से होता है।

भूमिकाओं की यह बहुलता दाम्पत्य जीवन में अनेक तनाव पैदा करने लगती है। परिवार के सदस्यों के व्यवहार उन परस्पर विरोधी मूल्यों से प्रभावित होने लगते है जिनका सम्बन्ध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से है। फलस्वरूप अक्सर बच्चों का जीवन नियमबद्ध न होने के कारण उनका समुचित ढंग से समाजीकरण नहीं हो पाता। माता-पिता की व्यस्तता के कारण बच्चों को परिवार में वांछित स्नेह न मिलने से वे अपने आप को उपेक्षित महसूस करने लगते है। इससे माता-पिता के प्रति उदासीनता बढ़ने के साथ ही अलगाववाद की प्रवृत्ति में भी वृद्धि होने लगती है।

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