उग्रवादी आंदोलन परिस्थितियाँ योजनाएँ व 7 दोष

उग्रवादी आंदोलन – सन् 1905 से 1917 तक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन जो मुख्य रूप से उग्र था, की प्रभावी प्रवृत्ति रही, आन्दोलन के इस काल का नामकरण उसी प्रमुख प्रवृत्ति के आधार पर किया गया। अतः स्पष्ट है कि इस अवधि में राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य प्रवृत्ति उग्रवादी रही। उग्रवादी आंदोलन के इस चरण में उदारवादियों के स्थान पर उग्रवादी नेता प्रभुत्व में आ गये। उदारवादियों की विचारधारा तथा कार्य पद्धति से खिन्न होकर अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने नवीन जीवन दर्शन, नई राजनैतिक विचारधारा और संघर्ष के नूतन तरीकों को आधार बनाकर एक नवीन दल का सजन किया, जिसे उग्रवादी राष्ट्रवाद के नाम अभिहित किया गया।

उदारवाद के प्रति राजनैतिक असन्तोष इस काल में दो रूपों में प्रस्फुटित हुआ, जिन्होंने अलग-अलग तरीकों से स्वतन्त्रता आन्दोलन को आगे बढ़ाया। ये दो रूप थे- (i) उग्रवादी (ii) आतंकवादी। उग्रवादियों ने भारतीय और ब्रिटिश हितों में निरन्तर अन्तर्विरोध पर जोर दिया अर्थात् दोनों के हित परस्पर विरोधी थे और यह राष्ट्रीय आन्दोलन इसी अन्तर्विरोध का परिणाम था।

बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष, बी.पी. पाल तथा लाला लाजपत राय इस दल के मुख्य नेता थे। इन्होंने ‘स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग किया और सविनय अवज्ञा आन्दोलन का सूत्रपात किया। इनके प्रमुख कार्यक्रम थे – विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना, ब्रिटिश सरकार से सभी सम्बन्ध तोड़ना, सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करना, शिक्षा की देशी संस्थाएँ स्थापित करना, सार्वजनिक विरोध को ब्रिटिश अदालतों के बजाय पंचों द्वारा सुलझाना तथा स्वदेशी का प्रचार करना।

उग्रवादी आंदोलन के समय की राजनीतिक परिस्थितियाँ

उग्रवादी आंदोलन के समय की राजनीतिक परिस्थितियों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर निम्न तथ्य सामने आते हैं-

  1. संघर्ष से ही राजनीति का हित 1872 के अधिनियम के पारित हो जाने के पश्चात् यह अनुभव किया जाने लगा कि अंग्रेजों से संघर्ष करने से कुछ राजनैतिक हितों की प्राप्ति की जा सकती है। उस समय के राष्ट्रवाद की पुकार भी यही थी कि अंग्रेजों से संघर्ष करके उन्हें पूरी तरह मजबूर कर दिया जाये तथा स्वराज्य की दिशा में कारगर कदम उठाया जाये।
  2. जनसेवकों का प्रादुर्भाव – इस समय ऐसे जनसेवकों का प्रादुर्भाव हो चुका था, जो देशभक्ति से सराबोर थे, जो क्षुद्र स्वार्थों की परिधि से उठकर राष्ट्र के जीवन के साथ आत्मीयता का सम्बन्ध स्थापित कर चुके थे और जो मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए कृत संकल्प थे। इन जन-नायकों ने अपने कार्यों से अपने आदर्शों और नेतृत्व शक्ति के बल पर देश में अद्भुत जोश का संचार कर दिया और राष्ट्र एक नवीन युग की चुनौतियाँ स्वीकार करने की दिशा में अपनी भावी रणनीति निर्धारित करने के लिए सजग हो गया।
  3. निरंकुशवाद के विरुद्ध घृणा ब्रिटिश शासकों में निरंकुशतावाद के विरुद्ध घृणा का घोर वातावरण था। देश के राष्ट्रवाद की यह माँग थी कि जितना जल्दी हो उतना ही सक्रिय प्रतिरोध किया जाये और इसी जन असन्तोष ने उग्रवादी आंदोलन के लिए रास्ता बनाया। लोगों में यह भावना पनपी कि अधीनता सबसे बड़ा अभिशाप हैं, अतः जितना जल्दी हो, परतन्त्रता से मुक्ति मिले और पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति हो।
  4. इस प्रकार से देश के कोने-कोने से ‘स्वराज की आवाज आ रही थी और उस समय का प्रबल राष्ट्रवाद किसी भी कीमत पर अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बेचैन था। इस बेचैनी ने जनता के समक्ष दो विकल्प प्रस्तुत कर दिये –
    • या तो वह अपने राष्ट्रवाद के सरित्प्रवाह को कुण्ठित कर दे।
    • या वह उदारवादी असफल तरीकों को छोड़कर एक नवीन उग्रवादी आंदोलन विचारधारा से अपना सामंजस्य स्थापित करे जो युग की पुकार थी। भारतीय राष्ट्रवाद ने समय की परिस्थितियों और तत्कालीन वातावरण को पहचान कर उग्रवाद की ओर उन्मुख होने में ही अपना लाभ समझा।
  5. मध्यवर्ग में बेरोजगार शिक्षित लोगों की संख्या में बढोत्तरी – मध्यवर्ग में बेरोजगार शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ती गयी। ये लोग उदारवादी नेताओं के कार्यकलापों से असन्तुष्ट होते गये। अन्ततः कांग्रेस के भीतर नवीन उग्रवादी राष्ट्रवाद का उदय हुआ।
grayscale photo of people on street near buildings during daytime
उग्रवादी आंदोलन

उग्रवादी आंदोलन की योजनाएं

उग्रवादी आंदोलन अपने लक्ष्य स्वराज्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा और आतंक की नीति में विश्वास नहीं करते थे, वे अहिंसात्मक साधनों द्वारा इसे प्राप्त करना चाहते थे। इस तरह उग्रवादियों की राजनीतिक विचारधारा और उद्देश्य तो उदारवादियां से भिन्न थे ही, लेकिन उनकी कार्य-पद्धति और साधन उदारवादियों से नितान्त विपरीत और सर्वथा भिन्न थे।

अपने उद्देश्य के कारण नहीं वरन् उसे प्राप्त करने के उपायों के कारण हमें उग्रवादियों की उपाधि मिली है।

तिलक

उग्रवादी आंदोलन को अंग्रेजों की न्यायप्रियता, क्रमिक सुधारों और अपने राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक साधनों में विश्वास नहीं था। इन साधनों को वे राजनीतिक भिक्षावृत्ति मानते थे और इनकी कड़ी निन्दा करते थे। उनका मत था कि ब्रिटिश राज्य भारत में शक्ति पर आधारित है और शक्ति द्वारा ही प्राप्त किया गया है इसलिए अंग्रेज भारत को खुशी से नहीं छोड़ेंगे। वे सरकार का विरोध कर उसे उखाड़ना चाहते थे। उनका न्यायप्रियता, क्रमिक सुधारों और अपने राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक साधनों में विश्वास नहीं था।

इन साधनों को वे राजनीतिक भिक्षावृत्ति मानते थे और इनकी कड़ी निन्दा करते थे। उनका मत था कि ब्रिटिश राज्य भारत में शक्ति पर आधारित है और शक्ति द्वारा ही प्राप्त किया गया है इसलिए अंग्रेज भारत को खुशी से नहीं छोड़ेगे। वे सरकार का विरोध कर उसे उखाड़ना चाहते थे। उनका विश्वास था कि राजनीतिक सत्ता प्रार्थना करने अथवा राजनीतिक सुधारों की भीख माँगने से प्राप्त नहीं हो सकती। उसे केवल स्वालम्बन के आधार पर संघर्ष करके ही प्राप्त किया जा सकता है। विपिनचन्द पाल कहा करते थे कि “स्वराज्य स्वालम्बन के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है और हमें अपनी राष्ट्रीय शक्तियों को इस प्रकार संगठित करना चाहिए कि कोई भी शक्ति जो हमारे विरुद्ध हो हमारे सम्मुख झुकने को बाध्य हो जाये।”

उग्रवादी आंदोलन की शर्तें

उग्रवादी आंदोलन के प्रमुख साधन निम्नलिखित थे-

  1. बहिष्कार – उग्रवादी आंदोलन के नेताओं ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहिष्कार रूपी साधन को अपनाया था। वे इसके अन्तर्गत सरकार के साथ असहयोग करने पर बल देते थे। बहिष्कार कार्यक्रम के अन्तर्गत विदेशी सरकार का बहिष्कार, सरकारी नौकरियों, प्रतिष्ठानों, उपाधियों और ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार सम्मिलित था। इस प्रकार के बहिष्कार आन्दोलन से उन्हें कुछ सफलता भी प्राप्त हुई।
  2. स्वदेशी उग्रवादी आंदोलन के लिए विदेशी वस्तुओं, संस्थाओं और मूल्यों को त्यागकर उनके स्थान पर भारतीय वस्तुओं, मूल्यों और संस्थाओं को अपनाने का नाम स्वदेशी था। इसके अन्तर्गत “विदेशी कपड़ा जलाओ और भारत में बना हुआ कपड़ा पहनो” पर बल दिया गया। उनका मत था कि इससे भारतीय उद्योग-धन्धों का विकास होगा और ब्रिटिश हितों एवं व्यापार को प्रत्यक्ष रूप से आघात पहुँचेगा। इसको सफल बनाने के लिए स्वयंसेवकों की टोलियाँ बनाई गईं जिन्होंने विदेशी माल की दुकानों पर धरना दिया तथा विदेशी कपड़ों के स्थान पर स्वदेशी माल का उपयोग करने पर जोर दिया। इस कार्य में उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली क्योंकि इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप भारत में विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलाई जाने लगीं।
  3. राष्ट्रीय शिक्षा – राष्ट्रीय शिक्षा का तात्पर्य यह था कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित विद्यालयों द्वारा मानसिक रूप से गुलाम बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था का बहिष्कार करके ऐसे राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना की जाये जो अपनी शिक्षा व्यवस्था द्वारा विद्यार्थियों को भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं का ज्ञान करायें तथा उनमें राष्ट्रीय भावना पैदा करें। इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उद्देश्य से अरविन्द घोष महाराजा बड़ौदा की एक उच्चपदीय नौकरी छोड़कर कलकत्ता के राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्राचार्य बन गये। इसी प्रकार तिलक ने दक्षिण शिक्षा समाज की स्थापना की और मदनमोहन मालवीय ने हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की योजना प्रस्तुत की। बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था पर आधारित अनेक विद्यालयों की स्थापना हुई।
  4. निष्क्रीय प्रतिरोध – इसका सीधा अर्थ यह था कि सरकार के प्रत्येक उस कार्य और कानून का विरोध करो जो भारतीयों का दमन करता हो और भारतीय हितों के प्रतिकूल हो परन्तु यह विरोध आक्रामक न होकर संगठित हो। उदाहरणार्थ- यदि सरकार हमारा शोषण करने के लिए हम पर कर लगाये तो हम संगठित होकर यह निश्चित करे कि हम वह कर नहीं देंगे। निष्क्रिय प्रतिरोध पर अपने विचार प्रकट करते हुए विपिनचन्द्र पाल ने कहा था कि “सरकार के कार्य को कई प्रकार से ठप्प किया जा सकता है। ऐसा तो सम्भव नहीं है कि प्रत्येक मजिस्ट्रेट कार्य करने से इन्कार कर दे तथा एक व्यक्ति के त्याग-पत्र देने पर उनके स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति न मिले, परन्तु सम्पूर्ण देश में यह भावना जाग्रत जो जाये कि समस्त सरकारी कार्यालयों में हड़ताल की जा सकती है। हम उस भारतीय स्थिति को जो सरकारी कर्मचारी हैं, ऐसी कर सकते हैं जैसे वह भारतीय नागरिक के सम्मान से नीचे गिर गया हो। सरकारी नौकरी करने वाले यदि बिल्कुल सहयोग न दें तो हम सरकार को असम्भव बना सकते हैं।

यदि सरकार स्वयं मेरे पास आकर कहे कि स्वराज्य ले लो तो मैं उपहार के लिए धन्यवाद देते हुए कहूँगा कि मैं उस वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकता जिससे प्राप्त करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। हमें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

तिलक

इस प्रकार से उग्रवादी आंदोलन द्वारा अपनाये गये साधनों में बहिष्कार और स्वदेशी के आन्दोलन को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। भारत के कुछ क्षेत्रों में तो बहिष्कार उग्रवादी आंदोलन कितना अधिक प्रबल और लोकप्रिय था इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि “परीक्षार्थियों ने विदेशी कागज की कापियाँ छूने से इन्कार कर दिया, बच्चों ने विदेशी जूते पहनना या ज्वर में विदेशी दवा लेने से इन्कार कर दिया और विवाह में मिली ऐसी विदेशी भेटें भी अस्वीकार की जाने लगीं जो भारत में भी बन सकती थीं।” इस बहिष्कार आन्दोलन का अन्तिम उद्देश्य भारत में विदेशी शासन को पंगु बनाकर भारतीय कपड़ा बुनकर उद्योग को बल प्रदान करना था जिसके लिए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक राष्ट्रीय कोष की स्थापना कर एक ही सार्वजनिक सभा में सत्तर हजार रुपये एकत्रित करने में सफलता प्राप्त की।

उग्रवादी आंदोलन के प्रति ब्रिटिश सरकार

कांग्रेस के अन्दर सत्ता स्थापित कने के पूर्व ही उग्रवादियों ने देश के विभिन्न भागों में आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। विशेषकर महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब आदि में यह बहुत तेजी से फैला। सर्वप्रथम बंगाल में आन्दोलन की तीव्रता रही। सन् 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा जैसे ही बंगाल का विभाजन किया गया वैसे ही उसके विरोध में विपिनचन्द पाल के नेतृत्व में स्वदेशी और बहिष्कार की नीति अपनाई गई। रवीन्द्रनाथ टैगोर के स्वदेशी गीतों ने जनता के क्रोध और पीड़ा को अभिव्यक्ति दी। वन्देमारतम् गीत का जोरदार प्रचार किया गया।

महाराष्ट्र में बालगंगाधर तिलक उग्र राष्ट्रीयता के प्रवर्तक थे। सच्चे अर्थों में उन्हें उग्रवाद का जनक कहा जाना चाहिए। उन्होंने ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का शंखनाद किया। मराठा व केशरी जैसे पत्रों द्वारा उन्होंने आत्म-बलिदान की प्रेरणा दी। उन्होंने महाराष्ट्र में ‘गणपति उत्सव’ तथा ‘शिवाजी उत्सव’ प्रारम्भ किये। इस तरह बंगाल और महाराष्ट्र के उग्रवादी आंदोलन का देश के अन्य भागों में व्यापक प्रभाव पड़ा। पंजाब में लाला लाजपत राय ने आत्मबल से कार्यकरने की प्रेरणा दी।

जनता में आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान और त्याग की भावना जाग्रत करने के लिए स्वदेशी आन्दोलन को सफल बनाना आवश्यक है।

तिलक

उग्रवादी आंदोलन की तीव्रता और बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर अंग्रेजों ने सोचा कि यदि इस समय आन्दोलन को नहीं दबाया गया तो अंग्रेजों को अधिक समय तक भारत में शासन करना असम्भव हो जायेगा। इसीलिए सरकार ने उग्रवादियों को प्रत्येक तरीके से दमन करना प्रारम्भ कर दिया। दमन के उपायों में रूसी प्रणाली को अपनाते हुए सरकार ने उग्रवादी नेताओं को देश निकाला दिया। सन् 1908 में पंजाब के उग्रवादी आंदोलन के नेता लाला लाजपत राय और सरदार अजीतसिंह को बिना मुकदमा चलाये बर्मा (म्यांमार) की माण्डले जेल भेज दिया गया। ‘केसरी’ के समाचार-पत्र में प्रकाशित कुछ लेखों के कारण तिलक को 6 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड दिया गया जिसके कारण देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई।

उग्रवादी आंदोलन
उग्रवादी आंदोलन

सरकार ने उग्रवादी आंदोलन को कुचलने के लिए अनेक काले कानूनों का आश्रय भी लिया। सरकार ने सन् 1910 में प्रेस एक्ट लागू करके समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया और बंगाल में कई नेता और समाचार-पत्र के सम्पादकों को बिना मुकदमा चलाये जेल में ठूंस दिया गया। सन् 1911 में षड्यंत्रकारी सभा अधिनियम लागू करके सरकार के विरुद्ध सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगा दी गई। भारतीय दण्ड संहिता में धारा 121 (A) और 153(A) जोड़कर उग्रवाद का सफाया करने का मार्ग प्रशस्त किया गया।

परन्तु सरकार की दमनकारी नीति से उग्रवादी आंदोलन को रोका नहीं जा सका। इस दमन नीति से न केवल उग्रवादी आंदोलन में और अधिक उत्साह आया वरन् सरकार से संघर्ष करने के लिए देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रादुर्भात हुआ। तब सरकार ने विवश होकर भारतीयों को संतुष्ट करने के 1919 में ‘भारत सरकार अधिनियम’ पारित करके भारत में संवैधानिक सुधारों की घोषणा की। इतना ही नहीं, जनरल डायर ने अमृतसर में मार्शल लॉ लागू कर दिया। इसके अतिरिक्त लाहौर, कसूर, गुजरानवाला, शेखूपुरा और बजीराबाद में भी हिंसा भड़कने के कारण सैनिक शासन घोषित कर दिया गया।

सैनिक अधिकारियों द्वारा संगीन अपराधों में 298 व्यक्तियों पर मुकदमें चलाये गये जिनमें से 51 व्यक्तियों को फाँसी और शेष को काले पानी या कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इतना ही नहीं, जनरल डायर ने अपने शासन-काल में इस प्रकार की यातनाएँ भारतीयों को दी जिन्हें पहले न कभी देखा गया था और न कभी सुना गया था। सार्वजनिक रूप से बेंत और कोड़े मारना तो एक साधारण-सी बात थी। गाँधी ने इन घटनाओं को पाशविक अत्याचार कहकर सम्बोधित किया। सभ्य संसार के इतिहास की यह सर्वाधिक शर्मनाक घटना थी।

यद्यपि शासन ने सभी प्रयत्न किये कि यह समाचार पंजाब से बाहर न जाने पाए परन्तु राष्ट्रवादी समाचार पत्रों और पत्रकारों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए इस समाचार को सम्पूर्ण विवरण के साथ प्रकाशित किया। जैसे-जैसे यह खबर पंजाब के बाहर पहुँची सम्पूर्ण देश क्रोध से पागल हो उठा। नवयुक क्रान्तिकारियों का खून उबलने लगा। लाला लाजपत राय ने सार्वजनिक रूप से इन अत्याचारों की घोर निन्दा की। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी उपाधि नाइटहुड शासन को लौटा दी। पंडित मदनमोहन मालवीय ने केन्द्रीय असेम्बली में एक के बाद एक प्रश्न कर सरकार को विवश कर दिया कि वह घटनाओं का सच्चा विवरण है। इस तरह भारत के कोने-कोने से पंजाब के इन अत्याचारों का घोर विरोध होने लगा। इस नरसंहार ने असहयोग आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त किया।

people gathering on street during nighttime
उग्रवादी आंदोलन

उग्रवादी आंदोलन के दोष

भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा या राष्ट्रीयता से अभिप्राय उस विचारधारा से है जो ब्रिटिश शासन से घृणा करती थी। यह ब्रिटिश शासन की न्यायप्रियता और औचित्य में विश्वास नहीं करती थी। यह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के स्थान पर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को श्रेष्ठ मानती थी। यह अंग्रेजी शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा चाहती थी। उग्रवादी आंदोलन के दोष निम्नलिखित थे-

  1. आम जनता के बहुसंख्यक मजदूर और किसान राष्ट्रवादी राजनीति की मुख्यधारा से अभी बाहर थे।
  2. जन-संघर्ष संगठित करने के प्रयत्न की वीरतापूर्ण बातें करने के बावजूद उस तरह के संघर्ष कुल मिलाकर गायब थे।
  3. अवज्ञा आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन अभी विचारमात्र थे।
  4. तिलक तथा अन्य नेता अभी भी यह जानते थे कि सामाजिक और आर्थिक विकास पूँजीवादी पद्धति की संकीर्ण सीमाओं के अन्तर्गत ही सम्भव है। 5. उग्र राष्ट्रवादियों ने आन्दोलन को हिन्दू दर्शन पर पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया।
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