ईसाई विवाह को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “विवाह समाज में एक पुरुष तथा स्त्री के बीच का एक समझौता है, जो साधारणतया सम्पूर्ण जीवनभर के लिए होता है तथा इसका उद्देश्य यौन सम्बन्धी पारस्परिक सहयोग तथा परिवार की स्थापना करना है।” ईसाई विवाह में पति-पत्नी के स्थायी सम्बन्ध को स्पष्ट करते सेण्ट पॉल का कथन है कि जो अपनी पत्नी से प्रेम करता है, वह स्वयं से प्रेम करता है कोई व्यक्ति स्वय अपने शरीर से घृणा नहीं कर सकता बल्कि इसका उसी विश्वास से भरण-पोषण करता है जैसा कि ईसामसीह द्वारा चर्च के लिए किया जाता है।
यही कारण है कि व्यक्ति अपने माता-पिता को छोड़ सकत है, लेकिन उसे अपनी पानी के साथ रहना आवश्यक है, क्योंकि वे दोनों एक शरीर और एक आमा हो आते है। वास्तविकता यह है कि ईसाई विवाह एक समझता होने के बाद भी अस्थायी समझौता नहीं है। इसकी प्रवृत्ति धार्मिक संस्कार के अधिक निकट है। इसी कारण ईसाई विवाह के अवसर पर पादरी द्वारा पति-पत्नी को यह आदेश दिया जाता है कि “अब तुम दोनों केवल एक औपचारिक समझौते से संयुक्त नहीं हुए हो। बल्कि विवाह संस्कार के पवित्र बन्धन में बंध गए हो।” यही विशेषता ईसाई विवाह की आन्तरिक प्रकृति को स्पष्ट करती है।
ईसाई विवाह के उद्देश्य
ईसाई विवाह जिन प्रमुख उद्देश्यों से सम्बन्धित है, उन्हें संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है :
- परिवार की स्थापना — ईसाई विवाह का मुख्य उद्देश्य परिवार की स्थापना करके ईश्वर की सृष्टि में विश्वास करना है। दूसरे शब्दों में, विवाह के द्वारा बच्चों के जन्म और उनके पालन-पोषण को एक कर्तव्य के रूप में देखना है। फोर्टेज ने लिखा है, “बच्चों को जन्म देने से ही व्यक्ति ईश्वर की रचनात्मक क्रियाओं में योगदान करता है तथा उनके पालन-पोषण से वह ईश्वर की सृजनात्मक शक्ति को अभिव्यक्त करता है।”
- पवित्र जीवन का विकास – उत्तर भारत संयुक्त चर्च के निर्देशों में उल्लेख है कि “विवाह एक पवित्र व्यवस्था है, जो ईश्वर द्वारा स्थापित है और इसलिए यह अपने प्राकृतिक क्रम में बनी हुई है। इस प्रकार विवाह सम्बन्ध ईसा और चर्च के अलौकिक सम्बन्धों का प्रतीक है।” इससे स्पष्ट होता है कि पवित्र जीवन व्यतीत करना ईसाई विवाह का एक प्रमुख उद्देश्य है।
- स्थायी सम्बन्धों का विकास – ईसाई विवाह का उद्देश्य पति-पत्नी के सम्बन्धों को स्थायी बनाना तथा उन्हें एक-दूसरे को सहयोग देने की प्रेरणा प्रदान करना है। इसी कारण ईसाई विवाह पति-पत्नी को तब तक सम्बन्ध-विच्छेद करने की अनुमति नहीं देता जब तक ऐसा करना बहुत अधिक आवश्यक न हो जाए।
- पारस्परिक सहयोग में वृद्धि — यह स्पष्ट किया गया है ईसाई विवाह का उद्देश्य व्यक्ति में उन गुणों को उत्पन्न करना है जिनके द्वारा पति-पत्नी ईश्वरीय महानता को प्राप्त करने में सफल हो सकें। यदि वे एक-दूसरे को सहयोग नहीं देते तो वे विवाह के पवित्र उद्देश्य को भूलते हैं।
- यौनिक सन्तुष्टि — यौनिक सन्तुष्टि को सभी समाजों में विवाह का एक उद्देश्य माना जाता है। इसके बाद भी ईसाई धर्म इसे विवाह के एक उद्देश्य के रूप में इसलिए स्पष्ट करता है जिससे व्यक्ति एक पवित्र जीवन व्यतीत कर सके। अविवाहित जीवन की पवित्रता को बनाए रखना सभी के लिए सरल नहीं है। इस प्रकार सामान्य व्यक्तियों को विवाह करके पवित्र जीवन व्यतीत करना ही अच्छा है।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ईसाई विवाह के सभी उद्देश्य इस प्रकार निर्धारित किए गए हैं जिससे व्यक्ति विवाह के माध्यम से एक पवित्र जीवन व्यतीत कर सके तथा स्थायी दाम्पत्य सम्बन्धों के द्वारा पारस्परिक सहयोग में वृद्धि कर सके।


ईसाई विवाह के प्रकार
परम्परागत रूप से ईसाई धर्म की कैथोलिक तथा प्रोटेस्टैण्ट दोनों शाखाएं ईसाइयों के लिए एक विवाह की ही अनुमति देती हैं। जीवन की पवित्रता के लिए एक विवाह के नियम को ही मान्यता दी जाती है। इसके बाद भी विवाह की विधि के आधार पर ईसाइयों में विवाह के दो रूपों को स्पष्ट किया जा सकता है। एक को हम धार्मिक विवाह कहते हैं और दूसरे को कानूनी विवाह अथवा सिविल मैरिज कहा जाता है।
- धार्मिक विवाह – यह वह विवाह है जो चर्च के माध्यम से एक संस्कार के रूप में पूरा किया जाता है। साधारणतया धार्मिक विवाह का निर्धारण वर और वधू के परिवार द्वारा होता है। ईसाई जीवन में वैयक्तिक स्वतन्त्रता का विशेष महत्व होने के कारण प्रेम विवाह का प्रचलन भी बहुत अधिक है। इसके बाद भी ऐसे विवाह को सम्पन्न करने के लिए चर्च द्वारा निर्धारित प्रक्रिया को पूरा करना अधिक अच्छा समझा जाता है।
- सिविल मैरिज — यह विवाह का कानूनी रूप है जिसके द्वारा विवाह से सम्बन्धित लड़के और लड़की को भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 के अन्तर्गत मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय में जाकर विवाह को पंजीकृत कराना पड़ता है। यद्यपि इस प्रक्रिया के द्वारा भी विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, लेकिन साधारणतया ऐसे पंजीकरण के बाद भी वर और वधू चर्च में फादर का आशीर्वाद लेने के लिए जाते हैं। अधिकांश ईसाइयों में आज भी सिविल मैरिज की तुलना में धार्मिक विवाहों का प्रचलन कहीं अधिक है।
ईसाई विवाह की प्रक्रिया
प्रत्येक समाज में विवाह की प्रकृति एक-दूसरे से कुछ भिन्न होने के बाद भी विवाह की प्रक्रिया को दुर विशेष संस्कारों के द्वारा पूरा किया जाता है। ईसाई जीवन में विवाह को पृथ्वी और स्वर्ग का मिलन मानने के कारण इसे एक पवित्र बन्धन के रूप में देखा जाता हैं। यही कारण है कि विवाह की प्रक्रिया परम्परागत रूप से किसी चर्च में ही पूरी की जाती है। ईसाई विवाह में दो संस्कारों का स्थान प्रमुख है जिन्हें मंगनी संस्कार तथा विवाह संस्कार कहा जाता है।
- मंगनी संस्कार वह है जिसे दिवाह से कुछ समय पहले पूरा किया जाता है। इसके अन्तर्गत विवाह से सम्बन्धित दोनों पक्षों के व्यक्ति किसी निश्चित दिन चर्च में एकत्रित होते हैं। वर पक्ष के द्वारा लड़की के लिए विवाह के कपड़े, अंगूठी और उपहार लाए जाते हैं। निर्धारित समय पर चर्च के पादरी द्वारा वाइविल के अंशों का उपदेश देने के बाद वर और वधू से विवाह की औपचारिक स्वीकृति ले ली जाती है। इसके साथ ही पावरी यह घोषणा करता है कि अमुक लड़के और लड़की के बीच विवाह सम्बन्ध करना निश्चित हुआ। इसके बाद लड़का और लड़की एक-दूसरे को अंगूठियां पहनाते हैं। इस रस्म के पूरा होने के साथ ही चर्च में इस आशय की सूचना विज्ञापित कर दी जाती है कि अमुक व्यक्तियों के बीच विवाह सम्बन्ध निर्धारित हुआ है। साधारणतया तीन रविवारों तक इस तरह की विज्ञप्ति को इसलिए प्रकाशित किया जाता है जिससे अधिकांश व्यक्ति उसकी जानकारी प्राप्त कर सकें। यदि किसी को उस विवाह से सम्बन्धित कोई आपत्ति होती है तो उसे अपनी आपत्ति चर्च के अधिकारी के सामने रखने का पूरा अवसर दिया जाता है।
- विवाह संस्कार की प्रक्रिया का मुख्य केन्द्र चर्च है, यद्यपि प्रोटेस्टैण्ट की तुलना में विवाह के लिए कैथोलिक चर्च को प्रधानता दी जाती है। मंगनी संस्कार के बाद यदि निर्धारित अवधि के अन्दर विवाह से सम्बन्धित कोई उचित आपत्ति नहीं उठाई जाती तो निर्धारित तिथि और समय पर चर्च में विवाह की प्रक्रिया आरम्भ की जाती है। चर्च में वर पक्ष के व्यक्ति दाई ओर तथा वधू पक्ष से सम्बन्धित व्यक्ति वाईं ओर बैठते है। जैसे ही वर और वधू चर्च में पहुंचते हैं सभी उपस्थित व्यक्ति उनके स्वागत में धर्मानुसार गीत गाते हैं। इसके बाद पादरी द्वारा वर-वधू को सम्बोधित करते हुए पहले लड़के से विवाह के बारे में उसकी स्वीकृति ली जाती है। लड़के की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद पादरी द्वारा उसे बताया जाता है कि वह विवाह को एक पवित्र बन्धन समझते हुए इससे सम्बन्धित हमेशा अपने कर्तव्यों को पूरा करे। लड़के द्वारा पादरी के आदेशों को स्वीकार करने के बाद विवाह के प्रति लड़की की स्वीकृति ली जाती है। फिर वर और वधू अपनी-अपनी अंगूठियां बदलते हैं। इसके साथ ही पादरी दोनों के विवाह की घोषणा करता है तथा दोनों को अपना आशीर्वाद देता है।
इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि वर और वधू में से एक कैथोलिक चर्च का सदस्य हो तथा दूसरा प्रोटेस्टैण्ट धर्म का तो विवाह की प्रक्रिया कैथोलिक चर्च में ही सम्पन्न की जाती है। स्पष्ट है कि ईसाइयों में विवाह संस्कार के अन्तर्गत जीवन की पवित्रता, विवाह की आवश्यकता, पारस्परिक कर्तव्यों की पूर्ति तथा मित्रतापूर्ण व्यवहार कुछ विशेष तत्व हैं।


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ईसाई विवाह विच्छेद की प्रकृति
साधारणतया ईसाई धर्म विवाह विच्छेद के पक्ष में नहीं है। रोमन कैथोलिक चर्च विवाह विच्छेद को ईश्वर के विधान के विरुद्ध मानते हैं, लेकिन एक सुधारवादी शाखा के रूप में प्रोटेस्टैण्ट धर्म पति-पत्नी के बीच सामंजस्य न हो पाने की दशा में विवाह विच्छेद को मान्यता देता है। इसके बाद भी पति-पत्नी के बीच विवाह की घोषणा चर्च के माध्यम से कभी नहीं की जाती। साधारणतया जो व्यक्ति एक बार विवाह विच्छेद करता है उस पुरुष अथवा स्त्री को चर्च में दूसरा विवाह करने की अनुमति नहीं दी जाती है।
ईसाई धर्म द्वारा पति-पत्नी के बीच पारस्परिक प्रेम को अधिक महत्वपूर्ण मानने के कारण बांझपन के आधार पर वैवाहिक पृथक्करण को मान्यता नहीं दी जाती। यदि दोनों पक्षों में से कोई एक पक्ष पागल हो जाए अथवा दूसरे के प्रति क्रूरता का व्यवहार करे तब चर्च द्वारा उन्हें एक-दूसरे से पृथक् रहने की अनुमति दी जा सकती है। सेण्ट मैथ्यू ने ईसामसीह के कथन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “जो व्यक्ति अपनी पत्नी को पातकी होने के अतिरिक्त किसी दूसरे कारण से छोड़ता है और किसी अन्य स्त्री से विवाह करता है, वह व्यभिचारी है।”
यह सच है कि ईसाई धर्म विवाह विच्छेद को अच्छा नहीं मानता, लेकिन ईसाइयों में पति-पत्नी के बीच पारस्परिक प्रेम और सामंजस्य का अधिक महत्व होने के कारण जब कभी भी पति-पत्नी के सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न होने लगते हैं तो व्यावहारिक रूप से विवाह विच्छेद करने को बुरा नहीं समझा जाता। यही कारण है कि अनेक दूसरे समाजों की तुलना में ईसाई धर्म से सम्बन्धित व्यक्तियों के बीच विवाह विच्छेद की दर तुलनात्मक रूप से अधिक देखने को मिलती है।
कानून के द्वारा भी ईसाई विवाह विच्छेद को इसलिए मान्यता दी गई है जिससे ईसाई जीवन के बदलते हुए सामाजिक मूल्यों के अनुसार उन्हें दाम्पत्य सम्बन्धों के प्रति पूरी स्वतन्त्रता दी जा सके। इस कानून को भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम 1869 कहा जाता है। भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के द्वारा विवाह विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण तथा दाम्पत्य अधिकारों की पुनः स्थापना से सम्बन्धित जो मुख्य प्रावधान हैं उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-
- सर्वप्रथम, उन परिस्थितियों को समझना आवश्यक है जिनमें से किसी भी एक आधार पर पत्नी अपने पति से विवाह विच्छेद की मांग कर सकती है। यदि पति ने ईसाई धर्म छोड़कर कोई अन्य धर्म स्वीकार करके किसी दूसरी स्त्री के साथ विवाह कर लिया हो।
- पति ने किसी ऐसी स्त्री से यौनिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए हों जो निषिद्ध सम्बन्धों के अन्तर्गत आते हों।
- पति बलात्कार, अप्राकृतिक वासना या पशुता का अपराधी हो।
- पति अपनी पत्नी के साथ क्रूरता का व्यवहार करता हो।
- कम-से-कम दो वर्षों से पति द्वारा अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया गया हो।
- पति अपनी पत्नी की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हो।
इस अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत कुछ ऐसी दशाओं का भी उल्लेख है जिनके अन्तर्गत ईसाई विवाह को अमान्य घोषित किया जा सकता है अथवा पति-पत्नी के बीच वैवाहिक पृथक्करण की अनुमति दी जा सकती है। इनमें कुछ प्रमुख दशाएं इस प्रकार हैं-
- यदि विवाह के समय दोनों पक्षों में से कोई एक पक्ष नपुंसक अथवा पागल हो।
- पति तथा पत्नी उन सम्बन्धों के अन्तर्गत आते हों जिनके बीच ईसाई धर्म के अनुसार विवाह न हो सकता हो।
- दोनों में से किसी भी एक पक्ष का पहला जीवन साथी विवाह के समय जीवित हो तथा उससे विवाह विच्छेद न हो चुका हो। अधिनियम की धारा 22 के अनुसार पति-पत्नी को एक-दूसरे से पृथक् रहने की अनुमति भी न्यायालय द्वारा दी जा सकती है। पति-पत्नी के बीच यदि न्यायिक पृथक्करण हुआ हो तथा वे पुनः दाम्पत्य सम्बन्धों को पुनर्स्थापित करना चाहते हों तो अधिनियम की धारा 32 अनुसार उनके वैवाहिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा पुनः स्थापित करने की अनुमति भी दी जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की प्रकृति बहुत कुछ हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 से मिलती-जुलती है।


ईसाई विवाह में वर्तमान परिवर्तन
अनेक दूसरे समाजों की तुलना में ईसाई समाज में आधुनिक मूल्यों तथा वैयक्तिक स्वतन्त्रता को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। दूसरे धर्मावलम्बियों की तुलना में ईसाई लोग अधिक शिक्षित तथा व्यावहारिक मनोवृत्ति के हैं। पश्चिमी देशों में ईसाई धर्म के मानने वाले व्यक्तियों में जो सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं, उनका भारत के ईसाइयों पर भी एक स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। इसके फलस्वरूप ईसाई विवाह में आज अनेक परिवर्तन स्पष्ट हो रहे हैं-
- सर्वप्रथम विवाह में चर्च का प्रभाव कम होता जा रहा है। साधारणतया विवाह सिविल मैरिज के रूप में करके वर और वधू चर्च में केवल पादरी का आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं।
- एस. के. गुप्ता के अध्ययनों से स्पष्ट हुआ हैं कि भारत के ईसाइयों में लगभग 42 प्रतिशत विवाह रोमांस अथवा मित्रता के सम्बन्धों के आधार पर होते हैं। परिवार द्वारा निर्धारित होने वाले विवाहों की संख्या लगभग 20 प्रतिशत ही है।
- ईसाई समाज में अधिकांश स्त्रियों का जीवन आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के कारण पुरुषों पर उनकी निर्भरता बहुत कम है। इसके फलस्वरूप ईसाई समाज में विवाह-विच्छेद का प्रतिशत भी अधिक है।
- कैथोलिक नियम विधवा को पति की मृत्यु के 12 महीने बाद तक पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देते। साधारणतया विधया द्वारा पुनर्विवाह करना भी अच्छा नहीं समझा जाता । इसके बाद भी आज विधवा पुनर्विवाह का प्रचलन इस तरह बढ़ा है, जो ईसाइयों के परम्परागत नियमों के बिरुन्द्ध है।
- बहुत पास के रक्त सम्बन्धियों को छोड़कर ईसाई लोग किसी को भी अपना जीवन साथी चुनने के लिए स्वतन्त्र है। इस तरह एक और वैवाहिक नियमों में शिथिलता आई है तो दूसरी ओर अन्तर- धार्मिक विवाहों की संख्या में भी वृद्धि हो रही है।
- भौतिक मूल्यों के प्रभाव से दाम्पत्य सम्बन्धों को पवित्र जीवन के आधार के रूप में न देखकर केवल मित्रता के सम्बन्धों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इन परिवर्तनों के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि इन्होंने ईसाई समाज में किसी तरह का विघटन पैदा किया है।