आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य – आधुनिक काल के संधि काल के कवियों में 19वीं शताब्दी के द्विजदेव ने ब्रजभषा को अत्यंत स्वच्छ रूप में प्रयुक्त किया था जिसकी प्रशंसा आचार्य शुक्ल ने निम्न पंक्तियों में की है- “यह अयोध्या के महाराज थे और बड़ी ही सरस कविता करते थे। इनमें बड़ा भारी गुण भाषा की स्वच्छता है। अनुप्रास आदि शब्द चमत्कारों के लिए उन्होंने भाषा को कहीं पर भी भद्दा नहीं होने दिया है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के उपयोग पर टिप्पणी की भांति जगन्नाथ दास रत्नाकर के विषय में भी टिप्पणी की जा सकती है। रत्नाकर जी ने भी आधुनिक ब्रजभाषा के कवियों में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। अपनी कविता शक्ति तथा पद संरचना संस्थाओं के बल पर उन्होंने आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य का सम्राट कहलाने का गौरव प्राप्त किया है। सत्यनारायण कवि रत्नों तथा रत्नाकर जी को आधुनिक ब्रजभाषा काव्य का महान कवि माना जाता है क्योंकि इनकी ब्रजभाषा शुद्ध, सरस तथा कोमल कांत पदावली से परिपूर्ण है जिसमें पाठकों को आकृष्ट करने की पर्याप्त क्षमता विद्यमान है।

आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य
आधुनिक काल तक आते-आते हिंदी काव्य में खड़ी बोली के प्रयोग का प्रयत्न प्रारंभ कर दिया गया और ब्रजभाषा का एकछत्र साम्राज्य धीरे-धीरे विखंडित होने लगा। इससे पराभव काल में उसे रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न, नाथूराम शर्मा शंकर, जगन्नाथ भानु, नवनीत चतुर्वेदी जैसे सरस एवं रस सिद्ध कवि मिले गए। नहीं तो रीतिकाल के समापन के साथ ही ब्रजभाषा का हिंदी साहित्य से नाम मिट जाता।
स्वयं हरिऔध जैसे सशक्त कवि ने भारतेंदु युग तक ब्रजभाषा की रचनाएं की और द्विवेदी युग तक आते आते हुए भी खड़ी बोली का माध्यम अपना चुके थे। श्रीधर पाठक की भी यही स्थिति थी, उन्होंने अपने काव्य सृजन के प्रारंभिक दिनों में ब्रज भाषा में काव्य रचना की, किंतु द्विवेदी युग में आकर वह भी खड़ी बोली में काव्य रचना करने लगे थे। यही कारण है कि अनेक आलोचकों ने भारतेंदु युग को रीतिकाल की संध्या कहकर यह संकेत किया है कि रीतिकालीन काव्य प्रवृत्तियां एकदम समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि उन्हें वे सभी हिंदी साहित्य का एक प्रकार से क्रांतिकाल ही कहा जा सकता है।

इसलिए जहां एक ओर ब्रजभाषा के सामंती ठाट बाट के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप खड़ी बोली के काव्य रचना का माध्यम चुना गया। वहीं ब्रजभाषा के सरस रूप ग्रहण करते हुए अनेक रससिद्ध कवियों ने हिंदी साहित्य में सम्मानीय स्थान प्राप्त किया। रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न, नवनीत चतुर्वेदी आदि इसी प्रकार के कवि हैं जिन्होंने अग्नि ब्रज भाषा का विकास श्रंगार किया। आप आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
यहां तक कि छायावादी युग और उसके बाद तक यह ब्रजभाषा की काव्य धारा अच्क्षुण चली आ रही है। इसके दो कारण हैं एक तो द्विवेदी युग तक खड़ी बोली को पूर्णरूपेण अपनाए जाने के बाद कवियों का एक वर्ग ऐसा था जो ब्रजभाषा की माधुरी का पक्षधर था और काव्य भाषा के लिए उसी भाषा को उपयुक्त मानता था।
इसलिए छायावादी युग में भी रामनाथ जोतसी, रामचंद्र शुक्ल, राय कृष्णदास, दुलारे लाल भार्गव, वियोगी हरि, बालकृष्ण शर्मा नवीन, अनूप शर्मा, रामेश्वर ‘करुण’ उमाशंकर बाजपेई, उमेश आदि कवियों ने काव्य रचना के लिए बृजभाषा को भी अपनाए रखा। अमृतलाल चतुर्वेदी का श्याम संदेशों भ्रमरगीत परंपरा का उत्कृष्ट एवं सशक्त काव्य माना जाता है। डॉ बलदेव प्रसाद मिश्रा का श्यामशतक छायावादोत्तर काल की उल्लेखनीय कृति है। डा• रसाल जी ने तो रत्नाकर जी की तरह उद्धव शतक की रचना भी कर डाली। आप आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
इन कवियों के अतिरिक्त श्री गोपाल प्रसाद व्यास ने रंग, जंग और व्यंग की रचना ब्रजभाषा में ही की है। श्री अखिलेश त्रिवेदी ने गंगा लहरी 1947 ईस्वी की रचना ब्रज भाषा में ही की थी। इधर के हिंदी के मंचीय कवियों में सोम ठाकुर ने ब्रज भाषा में बड़ी मधुर रचनाएं की हैं। ब्रजभाषा की मधुरता के जादू का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आजकल भी काव्य संग्रहों के रूप में न सही परंतु विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अथवा आकाशवाणी मथुरा और दिल्ली से प्रसारित ब्रज माधुरी कार्यक्रम में ब्रजभाषा की अच्छी रचनाएं सुनने को मिल जाती हैं।

मिलि माधवी आदिक फूल के ब्याज विनोद लवा बरसायो करैं।
रचि नाच लतागन तानि वितान सवै विधि चित्त चुरायौ करैं।
द्विजदेव जू देखि अनोखी प्रभा अलि चारन की रति गायो करैं।
चिरंजीवौ बसंत सदा द्विजदेव प्रसूननि की झरिलायो करैं।।